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एकविंशाध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
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आचरण करे । समुद्रपाल मुनि इसी प्रकार से धर्म का आचरण करने लगे। जो जीव ब्रह्म-आत्मा और परमात्मा में आचरण-विचरण करने का स्वभाव रखता है, वही ब्रह्मचारी है । अथवा ब्रह्मचर्य का पालन करना अत्यन्त कष्टसाध्य है। इसलिए दूसरी वार प्रस्तुत गाथा में भी 'ब्रह्मचारी' पद का उल्लेख किया है। तथा सप्तमी के अर्थ में तृतीया विभक्ति के प्रयोग 'सुप्' व्यत्यय से जानने ।
अब फिर कहते हैंकालेण कालं विहरेज रट्रे,
बलाबलं जाणिय अप्पणो य । सीहो व सद्देण न सन्तसेजा,
वयजोग सुच्चा न असब्भमाहु ॥१४॥ . कालेन कालं विहरेत् राष्ट्र, ___ बलाबलं ज्ञात्वाऽऽत्मनश्च । सिंह इव शब्देन न सन्त्रस्येत्,
वा योगं श्रुत्वा नासभ्यं ब्रूयात् ॥१४॥ पदार्थान्वयः–कालेण कालं-यथासमय-समय के अनुसार–क्रियानुष्ठान करता हुआ रह-राष्ट्र—देश में विहरेज-विचरे अप्पणो अपने आत्मा के बलाबलं-बलाबल को जाणिय-जानकर सीहो व-सिंह की तरह सद्देन-शब्द से न सन्तसेजा-त्रास को प्राप्त न होवे वयजोग-वचनयोग सुच्चा-सुनकर असब्भम्असभ्य वचन न आहु-न बोले।
. मूलार्थ-मुनि यथासमय क्रियानुष्ठान करता हुआ देश में विचरे । अपने आत्मा के बलाबल को जानकर संयमानुष्ठान में प्रवृत्त होवे तथा शब्द को सुनकर सिंह की तरह किसी से त्रास को प्राप्त न होवे और असभ्य वचन न कहे।
टीका-इस गाथा में मुनिधर्मोचित्त आचार का वर्णन करते हुए समुद्रपाल मुनि के सजीव क्रियानुष्ठान का दिग्दर्शन कराया गया है । तात्पर्य यह है कि इस