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एकविंशाध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
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यह पद दिया है, जिसका अर्थ यह है कि अन्तिम फल पापरूप ही होगा। इसी प्रकार शुभ कर्मों के विषय में जान लेना चाहिए अर्थात् उनका फल पुण्य रूप ही होगा।
अब फिर पूर्वोक्त विषय में ही कहते हैंसंबुद्धो सो तहिं भगवं, परमसंवेगमागओ । आपुच्छम्मापियरो , पव्वए अणगारियं ॥१०॥ संबुद्धः स तत्र भगवान् , परमसंवेगमागतः । आपृच्छय · मातापितरौ, प्रवजितोऽनगारिताम् ॥१०॥
पदार्थान्वयः-भगवं-भगवान् सो-वह समुद्रपाल तहिं-उस गवाक्ष में बैठा हुआ संबुद्धो-संबुद्ध हुआ परमसंवेगं-उत्कृष्ट संवेग को आगओ-प्राप्त हो गया अम्मापियरो-माता और पिता को आपुच्छ-पूछकर पव्वए-दीक्षित हो गया अणगारियं-अनगारता को प्राप्त हो गया। - मूलार्थ-भगवान् समुद्रपाल तत्ववेत्ता होकर उत्कृष्ट संवेग को प्राप्त हो गये, फिर माता-पिता को पूछकर अनगारवृत्ति के लिए दीचित हो गये।
टीका-जिस समय समुद्रपाल ने चोर की दशा को देखकर कर्मों के स्वरूप का पर्यालोचन किया, उस समय उसको क्षयोपशमभाव से तत्त्वविषयक बोध उत्पन्न हुआ। उसके अनन्तर ही चारित्रावरणीय कर्म के क्षयोपशम से वह वैराग्य की परम दशा को प्राप्त हो गया। तब उसने अपने माता-पिता को पूछकर अनगारवृत्ति--संयमवृत्ति को ग्रहण कर लिया अर्थात् अपने सारे सांसारिक ऐश्वर्य को तिलांजलि देकर वीतराग के धर्म में दीक्षित हो गया। माता-पिता के साथ दीक्षाग्रहण समय में समुद्रपाल के जो प्रश्नोत्तर हुए थे, उनका विवरण यहाँ पर इसलिए नहीं किया गया कि वे प्रश्नोत्तर १९वें अध्ययन में विस्तार से दिखलाये जा चुके हैं, जो कि इसी प्रकार के हैं। कुछ गुर्जरभाषाकारों के लिखने से अथवा गुरुपरम्परा से यह श्रवण करने में आता है कि समुद्रपाल को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया था परन्तु सूत्रकार ने अथवा वृत्तिकारों ने इस विषय में कुछ भी उल्लेख नहीं किया। भगवान् शब्द यहाँ पर प्रशंसार्थ में ग्रहण किया गया है।