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________________ ३२ ] उत्तराध्ययनसूत्रम् [ एकविंशाध्ययनम् उसको रासभ— गधे पर चढ़ाकर, गले में जूतियों का हार डालकर और सिर को मुँडवाकर उसके आगे फूटा ढोल बजाते हुए वह वध्यस्थान में लाया जाता था । अपने महल में बैठे हुए समुद्रपाल ने इस प्रकार के दृश्य को देखा अर्थात् एक अपराधी पुरुष को फाँसी देने के लिए फाँसी के स्थान पर ले जाया जा रहा था; वह वध्यपुरुषोचित भूषणों से आभूषित था; और सहस्रों नर-नारी उसके साथ २ जा रहे थे । इस प्रकार का आश्चर्यजनक दृश्य उसकी आँखों के सामने से गुजरा। उक्त दृश्य को देखकर समुद्रपाल के मन में जो भाव उत्पन्न हुए, अब उसी के सम्बन्ध में कहते हैं तं पासिऊण संविग्गो, समुद्दपालो इणमब्बवी । अहो असुहाण कम्माणं, निजाणं पावगं इमं ॥९॥ तं दृष्ट्वा संवेगं, समुद्रपाल अहो अशुभानां कर्मणां निर्याणं " इदमब्रवीत् । पापकमिदम् ॥९॥ पदार्थान्वयः -- तं - उसको पासिऊण - देखकर संविग्गो - संवेग को प्राप्त होकर समुद्दपालो–समुद्रपाल इणम्- इस प्रकार अब्बवी - कहने लगा अहो - आश्चर्य है असुहाण-अशुभ कम्माणं-कर्मों के निजाणं-निर्याण पापगं - पापरूप है इमं - यह प्रत्यक्ष । . मूलार्थ — उस चोर को देखकर संवेग को प्राप्त होता हुआ समुद्रपाल इस प्रकार कहने लगा - अहो ! अशुभ कर्मों का अन्तिम फल पापरूप ही है, जैसे कि इस चोर को हो रहा है । टीका — महल के झरोखे में बैठे हुए समुद्रपाल ने जब उस चोर की अत्यन्त शोचनीय दशा देखी तो उसको संसार से वैराग्य उत्पन्न हो गया और मुक्ति की अभिलाषा अन्त:करण में एकदम जाग उठी । तब वह कहने लगा कि वास्तव में अशुभ कर्मों के आचरण का ऐसा ही कटु परिणाम होता है। जैसे कि इस चोर ने चोरी आदि अशुभ कर्मों का उपार्जन किया और तदनुरूप ही यह उनका फल भोजा रहा है । सारांश यह है कि जो अशुभ कर्म हैं, उनका अन्तिम फल अशुभ अर्थात् दुःखरूप ही होगा। इसी लिए सूत्रकर्ता ने – 'निज्जाणं पावगं ' 'निर्याणं पापकम्'
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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