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उत्सराध्ययनसूत्रम्- [एकविंशाध्ययनम् टीका-शिक्षाग्रहण के योग्य होने पर समुद्रपाल को शिक्षाप्राप्ति के लिए विद्यालय में प्रविष्ट किया गया। वहाँ पर उसने मनुष्य की ७२ कलाओं को सीखा और नीतिशास्त्र में भी अतिनैपुण्य को प्राप्त कर लिया। शिक्षा प्राप्त करने के अनन्तर वह युवावस्था की पूर्णता को प्राप्त होता हुआ अपने स्वाभाविक रूप-लावण्य से सबको अत्यन्त प्रिय लगने लगा । तात्पर्य यह है कि जो कोई भी उसको देखता था, वह उस पर मुग्ध हो जाता था। किसी २ प्रति में 'आप्फुण्णे' के स्थान पर 'संपन्ने' पाठ देखने में आता है। परन्तु अर्थ में कोई विशेष अन्तर नहीं है।
तदनन्तरतस्स रूपवई भज्जं, पिया आणेइ रूविणीं। पासाए कीलए रम्मे, देवो दोगुंदगो जहा ॥७॥ तस्य रूपवतीं भायां, पिताऽऽनयति रूपिणीम् । प्रासादे क्रीडति रम्ये, देवो दोगुन्दको यथा ॥७॥
पदार्थान्वयः-तस्स-उसके पिया-पिता ने रूववई-रूप वाली भजं-भार्या रूविणीं-रूपिणी नामा आणेइ-लाकर दी रम्मे-रमणीय पासाए-प्रासाद में कीलएक्रीड़ा करता है जहा-जैसे दोगुंदगो-दोगुन्दक देवो-देव स्वर्ग में सुख भोगते हैं।
__ मूलार्थ—उसके पिता ने रूपिणी नाम की अति रूपवती भार्या उसको लाकर दी अर्थात् एक परम सुन्दरी कन्या के साथ उसका विवाह कर दिया। वह उस रूपवती भार्या के साथ एक सुन्दर महल में क्रीड़ा करता हुआ दोगुन्दक देवों के समान विषयभोगजन्य स्वर्गीय सुख का उपभोग करने लगा।
टीका-जब वह समुद्रपाल विद्याध्ययन कर चुका और पूर्ण युवावस्था को प्राप्त हो गया, तब उसके पिता ने एक रूपवती कन्या के साथ उसका पाणिग्रहण करा दिया। तब वह समुद्रपाल अपनी भार्या के साथ एक अतिरमणीय प्रासाद में रहकर क्रीड़ा करता हुआ दोगुन्दक देवों के समान स्वर्गीय सुख का उपभोग करने लगा। तात्पर्य यह है कि जैसे दोगुन्दक नामा देव निर्विघ्नतया खर्गीय सुखों का उपभोग करते हैं अर्थात् इन्द्र के गुरु होने से उनको इन्द्र का भी