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________________ ६०२ ] उत्तराध्ययनसूत्रम्- [ चतुर्दशाध्ययनम् शरीर में से ही सत्त्व-जीव उत्पन्न हो जाता है और शरीर के नाश होने पर साथ ही नष्ट हो जाता है किन्तु बाद में नहीं रहता। टीका-पुरोहित जी कहते हैं कि हे पुत्रो ! जैसे अरणिकाष्ठ से अग्नि, दुग्ध से घृत और तिलों से तेल उत्पन्न होता है उसी तरह यह जीव भी इस शरीर से ही उत्पन्न होता है और उसके विनाश से विनष्ट हो जाता है । इस कथन का तात्पर्य यह है कि अरणि में अग्नि प्रथम विद्यमान नहीं थी, दुग्ध में घृत मौजूद नहीं था किन्तु हलदी और चूने के मेल से उत्पन्न होने वाले लाल रंग की तरह अथवा मदशक्ति की तरह यह सब पदार्थ आगन्तुक ही उत्पन्न होते हैं। इसी तरह यह जीव भी अपने शरीर में पृथिवी आदि पांच भूतों के विलक्षण संयोग से उत्पन्न होने वाला एक आगन्तुक पदार्थ ही है तथा जैसे यह शरीर के साथ उत्पन्न होता है वैसे उसके शरीर के नाश होने पर यह नष्ट भी हो जाता है । तात्पर्य कि यह कोई स्वतंत्र सत्ता रखने वाला पदार्थ नहीं है । अथवा यों कहिए कि जैसे जल में उठने वाले बुबुदे जल से ही उत्पन्न होते हैं और जल में ही लय हो जाते हैं, उसी प्रकार यह जीव-चेतनसत्ता भी शरीर के साथ ही उत्पन्न होता है और शरीर के साथ ही विलीन हो जाता है अर्थात् जलबुबुद की तरह इसकी स्वतंत्र सत्ता नहीं है । सो इस प्रकार जब कि आत्मा का अस्तित्व ही असिद्ध है तो फिर संयम आदि के ग्रहण का प्रयोजन ही कुछ नहीं रहता । अतः संयमवृत्ति की मिथ्या लालसा को त्याग कर यहां घर में उपलब्ध होने वाले लौकिक सुख का ही सम्पूर्ण रीति से तुम को उपभोग करना सब से अधिक लाभप्रद है, यह प्रस्तुत गाथा का फलितार्थ है। ... पिता के इस वक्तव्य को सुनकर उन कुमारों ने जो कुछ उत्तर दिया, अब उसी का वर्णन करते हैं नो इन्दियग्गेज्झ अमुत्तभावा, अमुत्तभावा वि य होइ निच्चो । अज्झत्थहेडं निययस्स बन्धो, संसारहेडं च वयन्ति बन्धं ॥१९॥
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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