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चतुर्दशाध्ययनम् ]. हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[६०१ तुच्छ हैं, धर्म के अधिकार में इनकी कोई भी गणना नहीं । अतः हम दोनों का संकल्प तो गुणसमुदाय के आश्रयभूत साधुधर्म के अनुसरण का ही है । इसलिए द्रव्य और भाव से अप्रतिबद्ध होकर नगर से बाहर रहते हुए हम दोनों केवल शुद्ध भिक्षावृत्ति से ही अपना जीवन व्यतीत करेंगे। ___ इस प्रकार बार २ समझाने पर भी जब वे भृगुपुत्र अपने विचार से स्खलित नहीं हुए तब भृगु पुरोहित ने धर्म के मूलस्तम्भरूप आत्मा के अस्तित्व को ही मिटाने का प्रयत्न किया अर्थात् शरीर से अतिरिक्त और नित्य आत्मा नाम का कोई पदार्थ नहीं है ।
अब शास्त्रकार इसी विषय में कहते हैंजहा य अग्गी अरणी असन्तो, _खीरे . घयं तेल्ल महातिलेसु । एमेव जाया सरीरंसि सत्ता,
संमुच्छई नासइ नावचिट्टे ॥१८॥ यथा चाग्निररणितोऽसन् , ____ क्षीरे घृतं तैलं महातिलेषु । '' एवमेव जातौ शरीरे सत्त्वाः , ____ संमूर्च्छन्ति नश्यन्ति नावतिष्ठन्ते ॥१८॥
पदार्थान्वयः-जहा-जैसे अग्गी-अग्नि अरणी अ-अरणी से असंतोविद्यमान न होने पर भी उत्पन्न हो जाती है जैसे खीरे-दुग्ध में घयं-घृत तेल्लेतेल महातिलेसु-तिलों में उत्पन्न हो जाता है एमेव-इसी प्रकार जाया-हे पुत्रो ! स-अपने सरीरंसि-शरीर में सत्ता-जीव संमुच्छई-उत्पन्न हो जाता है नासइनष्ट हो जाता है नावचिट्टे-बाद में नहीं ठहरता ।
मूलार्थ-हे पुत्रो ! जैसे अविद्यमान होने पर भी अरणी से अमि उत्पन्न हो जाती है, दुग्ध से घृत और तिलों से तैल उत्पन्न होता है इसी प्रकार