SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 347
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४ ] उत्तराध्ययनसूत्रम् - [ विंशतितमाध्ययनम् कोई रक्षक नहीं बनता । बस, यही उसकी अनाथता है और यही अनाथ होकर नाथ बनने वाले के लक्षण हैं। इस प्रकार उक्त मुनिराज ने अपनी प्रथम प्रतिज्ञा के अनुसार — हे राजन् ! तू अन्य प्रकार से भी अनाथता के स्वरूप को सुन, इस प्रतिज्ञा के अनुसार—अनाथता के स्वरूप का भली भाँति दिग्दर्शन करा दिया, जिससे कि राजा को अन्य प्रकार की अनाथता का भी भली प्रकार से ज्ञान हो जाय । इस पूर्वोक्त प्रकरण को सुनकर विचारशील पुरुष का जो कर्तव्य होना चाहिए, अब उसके विषय में कहते हैं - सुच्चाण मेहावि सुभासियं इमं, अणुसासणं नाणगुणोववेयं । मग्गं कुसीलाण जहाय सव्वं, महानियंठाण वर पणं ॥ ५१ ॥ श्रुत्वा मेधाविन् सुभाषितमिदं,. अनुशासनं मार्ग कुशीलानां हित्वा सर्वं, महानिन्थानां व्रजेः पथा ॥ ५१ ॥ पदार्थान्वयः – सुच्चा -सुनकर - वाक्यालंकार में मेहावि - हे मेधाविन् ! इमं - इस सुभासि - सुभाषित को अणुसासणं - अनुशासन को जो नाणगुणोववेयंज्ञानगुण से युक्त है सव्वं - सर्व प्रकार से कुसीलाण - कुशीलियों के मग्गं - मार्ग को जहाय - त्यागकर महानियंठाण - महानिर्ग्रन्थों के पहेणं - मार्ग से वए - गमन कर । ज्ञानगुणोपेतम् । मूलार्थ - हे मेधाविन् ! ज्ञानगुण से युक्त इस अनन्तरोक्त सुभाषित अनुशासन को सुनकर, कुशीलियों के कुत्सित मार्ग को सर्वथा छोड़कर तू महानिर्ग्रन्थों के प्रशस्त मार्ग का अनुसरण कर अर्थात् उनके बतलाये हुए मार्ग पर चल । टीका - अनाथी मुनि महाराज श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन् ! मैंने तेरे समक्ष ज्ञानादि सद्गुणों से युक्त जिस सुन्दर अनुशासन का वर्णन किया है,
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy