SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 346
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विंशतितमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । एवमेव यथाछन्दकुशीलरूपः, मार्ग विराध्य जिनोत्तमानाम् । [ १३ कुरव भोगरसानुगृद्धा, परितापमेति ॥५०॥ निरर्थशोका पदार्थान्वयः – एमेव - इसी प्रकार अहाछन्द - स्वेच्छाचारी कुसीलरूवे-कुशील रूप जिणुत्तमाणं - जिनेन्द्र भगवान् के उत्तम मग्गं - मार्ग को विराहित्तु - विराधन करके कुररी-पक्षिणी की विवा - तरह भोगरसाणुगिद्धा - भोगरसों में निरन्तर आसक्त होकर निरङ्कुसोया - निरर्थक शोक करने वाली परितानम् - परिताप को एहप्राप्त होता है । मूलार्थ - इसी प्रकार स्वेच्छाचारी कुशीलरूप साधु जिनेन्द्र भगवान् के मार्ग की विराधना करके, भोगादि रसों में निरन्तर आसक्त होकर निरर्थक शोक करने वाली कुररी - पक्षिणी की तरह परिताप को प्राप्त होता है । 1 टीका - इस गाथा में द्रव्यलिंगी - कुशील साधु की स्वेच्छाचारिता के फल . का प्रदर्शन कराया गया है । उक्त मुनिराज कहते हैं कि हे राजन् ! इसी प्रकार जो पुरुष कुशील, महाव्रतों में शिथिल और स्वेच्छाचारी होकर कुत्सित आचार को धारण करता हुआ जिनेन्द्र भगवान् के सर्वोत्तम मार्ग की विराधना करता है, वह रसासक्त कुररी की तरह अत्यन्त परिताप को प्राप्त होता है । तात्पर्य यह है कि जैसे कोई पक्षिणी आमिष में आसक्ति रखती हुई, अन्य पक्षियों द्वारा अत्यन्त पीड़ा को प्राप्त होती है; अर्थात् किसी एक पक्षिणी ने मांस के टुकड़े को लाकर खाना आरम्भ किया, तब उस समय अन्य पक्षिगण भी वहाँ आकर एकत्रित हो गये और उसके . पास से वह मांस का टुकड़ा छीनने लगे । जब उसने वह मांस का टुकड़ा न छोड़ा तो सब मिलकर उसको मारने लगे, और मारकर उसके पास से वह मांस का टुकड़ा छीन लिया । इस प्रकार मांस का टुकड़ा छिन जाने से जैसे वह कुररी व्यर्थ ही शोक करती है, इसी प्रकार विषय-भोगों में आसक्ति रखने वाला द्रव्यलिंगी साधु भी दोनों लोकों में व्यर्थ ही शोक को प्राप्त होता है । एवं जैसे उस पक्षिणी का कोई सहायक नहीं होता, उसी प्रकार चारित्र से भ्रष्ट हुए जीव का भी इस लोक तथा परलोक में
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy