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________________ चतुर्दशाध्ययनम् ] धनं प्रभूतं हिन्दीभाषा टीकासहितम् । स्त्रीभिः, सह स्वजनास्तथा कामगुणाः प्रकामाः । तपः कृते तप्यते यस्य लोकः, तत्सर्वं स्वाधीनमिहैव युवयोः ॥ १६ ॥ [ xεε पदार्थान्वयः—धणं-धन पभूयं - बहुत है इत्थियाहिं- स्त्रियों के सह-साथ सयणा - स्वजन तहा - तथा कामगुणा - कामगुण पगामा - प्रकामअत्यधिक हैं जस्स-जिस कृते - के लिए लोगो - लोग तवं तप को तप्पतपते हैं तं - वह सव्ध - सब तुब्भं - आपके साहीणं - स्वाधीन है इहेव - यहां घर में ही । मूलार्थ — हे पुत्रो ! यहां स्त्रियों के साथ धन बहुत है, स्वजन तथा कामगुण भी पर्याप्त हैं । जिसके लिए लोग तप करते हैं, वह सब इस घर में तुम्हारे स्वाधीन है । टीका - पुरोहित जी फिर भी अपने पुत्रों को सांसारिक पदार्थों का प्रलोभन दे रहे हैं । कहते हैं कि इस घर में धन बहुत है तथा विषयवासना की पूर्ति के निमित्त स्त्रियों की भी कमी नहीं । एवं सगे-सम्बन्धी भी पर्याप्त संख्या में हैं । अधिक क्या कहूँ, जिन पदार्थों की प्राप्ति के लिए लोग दुष्कर तपश्चर्या करते हैं. वे सब के सब आपके स्वाधीन हैं अर्थात् आपको अनायास प्राप्त हैं 1 1 तात्पर्य कि इस संसार में जितनी भी सुख की सामग्री है जैसे कि धन, स्त्री, सगे-सम्बन्धी और इच्छानुकूल कामभोग आदि - वह सब आपके घर में विद्यमान हैं और इन्हीं के लिए प्राणी तप करते हैं तो फिर दीक्षा के लिए उद्यत होना कौन सी बुद्धिमत्ता का काम है । अतः तुम घर में ही रहो, किन्तु दीक्षा के लिए उद्योग मत करो | यहां पर 'तुब्भं' यह 'युवयोः ' का प्रतिरूप है । पिता के इस कथन को सुनकर अब दोनों कुमार कहते हैं
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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