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उत्तराध्ययन सूत्रम्
पदार्थान्वयः - इमं - यह मे - मेरे अस्थि - है च - और नत्थि - नहीं है इमं - यह च - और मे मेरे किच्च - करणीय अकिच्चं - अकरणीय है तं - उस पुरुष को करते हुए को हरा - रात दिन रूप चोर प्रकार विचार कर कहं - कैसे पमाए - प्रमाद
[ चतुर्दशाध्ययनम्
इमं - यह मे - मेरे कार्य है इमं - यह एवमेवं - इसी प्रकार लालप्पमाणं - संलाप हरंति - परलोक में ले जाते हैं त्ति-इस किया जावे च - पुनः अर्थ में है ।
मूलार्थ - यह वस्तु मेरी है, यह मेरी नहीं है, यह कार्य मेरे को करना है और यह नहीं करना, इस प्रकार निरन्तर संलाप करते हुए पुरुष को कालरूप चोर एक दिन प्राणों को हर कर परलोक में पहुंचा देता है तो फिर धर्म में प्रमाद कैसे किया जावे ।
'टीका — दोनों कुमार अपने पिता के प्रति फिर कहते हैं कि यह जीव इसी प्रकार के विचारों की उधेड़बुन में लगा हुआ अपनी आयु को पूरी करके चला जाता है अथवा काल उसे परलोक का पथिक बना देता है। जैसे कियह पदार्थ मेरे पास है और वह नहीं, एवं यह कार्य तो मैंने कर लिया परन्तु वह अभी बाकी है । तात्पर्य कि विषयभोगों के लिए उपयुक्त सामग्री के जुटाने में रात दिन पागलों की तरह व्यम्र रहने वाले जीव, अपनी आयु के परिमाण को भी बिलकुल भूल जाते हैं और इस दशा में दिन रात रूप चोर तथा अनेक प्रकार की आधिव्याधियां उसके पीछे लगी रहती हैं, समय आने पर उसको यहां से उठाकर परलोक में भेज देते हैं। ऐसी अवस्था में विचारशील पुरुष को किसी प्रकार से भी प्रमाद नहीं करना चाहिए
अब भृगु पुरोहित उन कुमारों को धन का प्रलोभन देता हुआ कहता
है कि
धणं पभूयं सह इत्थियाहिं,
सयणा तहा कामगुणा पगामा ।
तवं कए तप्प जस्स लोगो,
तं सव्व साहीणमिहेव तुब्भं ॥ १६ ॥