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एकोनविंशाध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
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किन्तु क्षुधा के समय वन में विचरने से उसको जो कुछ प्राप्त होता है उसी से वह अपना निर्वाह कर लेता है। इसी प्रकार भिक्षावृत्ति प्रवृत्त हुआ मुनि भी अपने पास किसी प्रकार के आहार द्रव्य का संचय न करता हुआ केवल शुद्ध भिक्षावृत्ति से उपलब्ध हुए खाद्य पदार्थों से अपनी क्षुधा की निवृत्ति करे परन्तु किसी घर से कदन्न — कुत्सित आहार मिलने पर अथवा न मिलने पर उस आहार की अवहेलना या न देने वाले दाता की निन्दा न करे । क्योंकि मुनि का धर्म तो याचना करने का है, आगे देना या न देना अथवा सुन्दर आहार न देना दाता की इच्छा पर निर्भर है । प्रस्तुत गाथा में साधु को मृग से उपमित किया गया है । उसका अभिप्राय यह है कि जैसे मृग असहाय होता है, उसी प्रकार साधु भी किसी गृहस्थ की सहायता की अभिलाषा न करे; तथा जैसे मृग अनेक स्थानों में फिरता है, उसी भाँति साधु भी निरन्तर भ्रमण ही करता रहे; एवं जैसे मृग का कोई खास निवासस्थान नहीं होता, उसी तरह साधु का भी कोई स्थायी निवासस्थान नहीं होना चाहिए; और जैसे मृग केवल अपने ही पुरुषार्थ से तृणादि आहार का अन्वेषण करके उसके द्वारा शरीरयात्रा को चलाता है, उसी प्रकार साधु भी केवल गोचरीवृत्ति से अपनी उदरपूर्ति करने का संकल्प रक्खे । तात्पर्य यह है कि किसी गृहस्थ का उपाश्रय आदि में लाकर दिया हुआ आहार साधु कदापि ग्रहण न करे । इसी अभिप्राय से मुनि की वृत्ति को मृगचर्या के नाम से शास्त्रकारों ने अभिहित किया है । यद्यपि पूर्व की गाथाओं में साधुवृत्ति के लिए मृग के साथ पक्षी का भी उल्लेख किया है, परन्तु यह गौण है; मुख्यतया मृग की उपमा ही यथार्थ है, क्योंकि वह स्वभाव से ही सरल और उपशान्त होता है । इसलिए मुनिवृत्ति के वही उपयुक्त प्रतीत होता है। अर्थात् संयमवृत्ति को धारण करने वाला साधु भी उपशान्त, मोह और सरल स्वभाव वाला होना चाहिए ।
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इसके अनन्तर मृगापुत्र ने जो कुछ किया, अब उसका निरूपण करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि
मिगचारियं चरिस्सामि, एवं पुत्ता ! जहासुहं । अम्मापिऊहिंऽणुण्णाओ, जहाइ उवहिं तओ ॥ ८५ ॥