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उत्तराध्ययनसूत्रम्- [एकोनविंशाध्ययनम् जहा मिए एग अणेगचारी,
अणेगवासे धुवगोअरे य। एवं मुणी गोयरियं पविटे,
नो हीलए नोवियखिंसएज्जा ॥४॥ यथा मृग एकोऽनेकचारी, ___ अनेकवासो ध्रुवगोचरश्च ।
एवं मुनिर्गोचर्यां प्रविष्टः, . नो हीलयेन्नोऽपि च खिसयेत् ॥८॥
पदार्थान्वयः-जहा-जैसे मिए-मृग एग-अकेला अणेगचारी-अनेक स्थानों में विचरता है य-और अणेगवासे-अनेक स्थानों में वास करता है, तथा धुवगोअरे-सदा गोचरी किये हुए आहार का ही आहार करता है एवं-इसी प्रकार मुणी-साधु गोयरियं-गोचरी में पविटे-प्रविष्ट हुआ नो हीलए-कदन्न मिलने पर हीलना न करे य-और नावि-न खिंसएजा-आहार के न मिलने पर निन्दा करे।
मूलार्थ-जैसे अकेला मृग अनेक स्थानों में विचरने वाला होता है और अनेक स्थानों में निवास करने वाला होता है, तथा ध्रुवगोचर अर्थात् सदा गोचरी किये हुए आहार का ही भक्षण करने वाला होता है, उसी प्रकार गोचरी वृत्ति में प्रविष्ट हुआ मुनि भी, कदशन-कुत्सित-आहार के मिलने पर उसकी अवहेलना न करे तथा न मिलने पर निन्दा न करे ।
टीका-मृगापुत्र फिर कहते हैं कि जैसे सहायशून्य अकेला ही मृग अनेक स्थानों में विचरता रहता है और अनेक स्थानों में निवास करता है क्योंकि उसका कोई भी नियत स्थान नहीं होता । तथा भ्रमण करते हुए उसको जहाँ पर जैसे भी तृण आदि भक्ष्य पदार्थ की प्राप्ति हो जाती है, उसी से वह अपने उदर की पूर्ति कर लेता है। तात्पर्य यह है कि उसके पास अनेक दिनों के लिए न तो खाद्य पदार्थों का संचय रहता है और न वह दूसरों के पास खाद्य पदार्थों को संचित रखता है।