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उत्तराध्ययनसूत्रम् -
[ एकोनविंशाध्ययनम्
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रहने वाले मुनियों को इस प्रकार की वृत्ति का पालन करना सर्वथा असाध्य नहीं तो कष्टसाध्य अवश्य है । तो भी संयमशील साधु इस बात का विचार अवश्य करता रहे कि वह समय मुझे कब प्राप्त होगा, जब कि मैं गच्छ को छोड़कर एकल विहारप्रतिमा को अंगीकार करूँ ( यह कथन औपपातिक सूत्र के व्युत्सर्ग विवरण में है ) । तात्पर्य यह है कि इस प्रकार का भाव प्रत्येक मुनि को रखना चाहिए । गोचरी शब्द से यहाँ पर मृगचर्या सूचित की गई है ।
इसके अनन्तर—
खाइत्ता पाणियं पाउं, वल्लुरेहिं सरेहि य । मिगचारियं चरित्ता णं, गच्छई मिगचारियं ॥ ८२ ॥
स्वादित्वा पानीयं पीत्वा वलरेषु सरस्सु च । मृगचर्यां चरित्वा गच्छति मृगचर्याम् ॥ ८२ ॥
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पदार्थान्वयः——खाइत्ता – खाकर पाणियं - पानी पाउं - पीकर वल्लुरेहिं - वनों में - और सरेहि-सरों में मिगचारियं-मृगचर्या को चरित्ता - आचरण करके मिगचारियं - मृगचर्या में गच्छईई- चला जाता है ।
मूलार्थ - वह मृग वनों में और जलाशयों में घास आदि खाकर और पानी पीकर मृगचर्या का आचरण करता हुआ अपने स्थान में विचरता है ।
टीका — मृगापुत्र कहते हैं कि नीरोग होने के बाद वह मृग तृण घा खाकर और जल आदि पीकर फिर आनन्दपूर्वक विचरने लगता है । स्वेच्छापूर्वक चलना और स्वेच्छापूर्वक बैठना, अर्थात् अपनी क्रिया में किसी के पराधीन न होना मृगचर्या कहलाती है । मृग के रहने के स्थान को भी मृगचर्या कहते हैं । उक्त गाथा में आये हुए 'वल्लरेहिं – सरेहि' पदों में 'सुप्' का व्यत्यय है अर्थात् सप्तमी के स्थान में तृतीया का प्रयोग किया गया है ।
अब उक्त मृगचर्या की साधुवृत्ति से तुलना करते हुए कहते हैं