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एकोनविंशाध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
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शंकित होकर ही दाना आदि भक्ष्य पदार्थों का ग्रहण करता है—क्योंकि यह जीव बड़ा भीरु होता है और अपने शत्रु — विडाल आदि जीवों से सदैव भयभीत सा बना रहता है । ठीक उसी प्रकार की महात्मा जनों की भी आहारादि ग्रहण करने की वृत्ति है, वे भी दोषों से सदैव शंकित रहते हैं । इसके अतिरिक्त साधुवृत्ति में जो केशों का लुंचन करना है, वह और भी दारुण है । अल्पसत्त्व रखने वाले जीवों वास्ते तो यह बहुत ही भयप्रद है । ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना तो इससे भी कठिन है । इस व्रत के सामने तो बड़े २ महात्मा पुरुष भी भाग जाते हैं । इसी लिए इस व्रत को घोर बतलाया गया है । तथा पाँच महाव्रतों में ब्रह्मचर्यव्रत की दुष्करता बतलाने के बाद फिर दूसरी बार इसका उल्लेख भी इसी आशय से किया गया है । इस गाथा में साधुचर्या की दुष्करता के लिए कापोती वृत्ति, केशलुंचन और शुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन, ये तीन हेतु दिये गये हैं जो कि सर्वथा समुचित प्रतीत होते हैं । अब संयमवृत्ति के पालन में पुत्र की असमर्थता का वर्णन करते हैं—
सुहोइओ तुमं पुत्ता ! सुकुमालो सुमजिओ । न हुसी पभू तुमं पुत्ता ! सामण्णमणुपालिया ॥३५॥ सुखोचितस्त्वं पुत्र ! सुकुमारश्च सुमज्जितः । न खल्वसि प्रभुस्त्वं पुत्र ! श्रामण्यमनुपालयितुम् ॥३५॥
पदार्थान्वयः — पुत्ता- हे पुत्र ! तुमं - तू सुहोइओ - सुखोचित है सुकुमालोसुकुमार है सुमजिओ - सुमज्जित है तुमं - तू पभू - समर्थ न हुसी - नहीं है पुत्ता - हे पुत्र ! सामण्णं - संयम के अणुपालिया - पालन करने को 1
मूलार्थ - हे पुत्र ! तू सुखोचित है, सुकुमार है और सुमज्जित - भली प्रकार से स्त्रपित है । अतः हे पुत्र ! तू संयमवृत्ति का पालन करने को समर्थ नहीं है । टीका -युवराज के माता पिता ने संयम की दुष्करता को बतलाने के अनन्तर मृगापुत्र को उसके अयोग्य बतलाते हुए कहा कि पुत्र ! तुमने आज तक संसार में कभी कष्टों का अनुभव नहीं किया तथा तेरा शरीर अतिकोमल है; अतः कष्टों को सहन करने के योग्य नहीं । इसके अतिरिक्त तू सदैव अलंकृत रहता