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उत्तराध्ययनसूत्रम्-
[एकोनविंशाध्ययनम्
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वाक्यों को शान्तिपूर्वक सहन कर लेना । विषम-ऊँची नीची—शय्या के मिलने पर भी चित्त में उद्वेग न लाना, तृणादि के स्पर्श से पीड़ित होने पर उसकी निवृत्ति का वस्त्रादि के द्वारा कोई उपाय न करना, उष्णता के कारण शरीर पर जमे हुए मल को उतारने के लिए स्नानादि क्रिया में प्रवृत्त न होना इत्यादि अनेक परिषहों का साधुवृत्ति में सामना करना पड़ता है। तथा कोई पुरुष साधु को हस्तादि मारते हैं, कोई २ अंगुलि आदि से तर्जना करते हैं, कोई २ लकड़ी आदि से मार बैठते हैं, तथा कोई २ बाँध ही देते हैं। इसके अतिरिक्त जीवनपर्यन्त घर २ में भिक्षा माँगना
और माँगने पर भी न मिलना तथा रोगादि के उपस्थित होने पर किसी प्रकार का उपचार अथवा आर्तध्यान न करना इत्यादि अनेक प्रकार के कष्टों को शांतिपूर्वक सहन करने की साधुवृत्ति में आवश्यकता पड़ती है। इसलिए इस वृत्ति का आचरण करना अतीव दुष्कर है।
इस प्रकार संक्षेप से परिषहों का विवरण करने के अनन्तर अब साधु के अन्य नियमों का उल्लेख करते हैं, जिससे कि उसकी—संयम की-दुष्करता और भी अधिक रूप से प्रतीत हो सके । यथा
कावोया जा इमा वित्ती, केसलोओ अ दारुणो । दुक्खं बंभव्वयं घोरं, धारेउं य महप्पणो ॥३४॥ कापोती येयं वृत्तिः, केशलोचश्च । दारुणः ।
दुःखं ब्रह्मव्रतं घोरं, धर्तुं च महात्मना ॥३४॥ . पदार्थान्वयः-कावोया-कपोत के समान जो-जो इमा-यह वित्ती-वृत्ति है अ-और केसलोओ-केशलुंचन भी दारुणो-दारुण है दुक्ख-दुःखरूप बंभवयंब्रह्मचर्य व्रत है और घोरं-घोर धारेउं-धारण करना य–पुनः महप्पणो-महात्मा को।
मूलार्थ-यह साधुवृत्ति कपोत पक्षी के समान है और केशों का लुंचन करना भी दारुण है तथा ब्रह्मचर्य रूप घोर व्रत का धारण करना भी महात्मा पुरुष को बड़ा कठिन है।
टीका-मृगापुत्र के माता पिता फिर कहते हैं कि हे पुत्र ! यह मुनिवृत्ति कपोत पक्षी के समान है अर्थात् जैसे कपोत-कबूतर पक्षी अपनी उदरपूर्ति के लिए