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________________ अष्टादशाध्ययनम् ] हिन्दी भाषाटीकासहितम् । [ ७२ पदार्थान्वयः—– संजओ-संजय नाम वाला अहम् - मैं अम्मीति - हूँ, इस हेतु से भगवं-हे भगवन् ! वाहराहि - बोलो मे - मुझसे । कुद्ध–कुपित हुआ अणगारेअनगार ते-तेज से हेज-भस्म कर देता है नरकोडिओ-करोड़ों मनुष्यों को । मूलार्थ - हे भगवन् ! मैं संजय नामक राजा हूँ, इस हेतु से मुझे उत्तर दो क्योंकि कुपित हुआ अनगार - साधु अपने तप तेज से करोड़ों मनुष्यों को भस्म कर देता है । टीका- — राजा ने मुनि से कहा कि भगवन् ! मैं संजय नाम का राजा हूँ । इसलिए आप मुझसे बोलें अर्थात् मेरी प्रार्थना की अभिभाषण द्वारा स्वीकृति देने की कृपा करें क्योंकि कुपित हुआ तपस्वी अपने तेज से करोड़ों मनुष्यों को भस्म कर देने की सामर्थ्य रखता है । राजा ने अपना परिचय देते हुए जो कुछ कहा है, उसका तात्पर्य यह कि राजा कहता है कि मैं कोई नीच पुरुष नहीं किन्तु संजय नाम का इस नगर का राजा हूँ | अतः मुझसे आप अवश्य संभाषण करें। नीच पुरुषों से संभाषण करना भले ही अच्छा न हो परन्तु मैं तो वैसा नहीं हूँ। मैं तो स्वकृत अपराध की क्षमा देने की आपसे प्रार्थना कर रहा हूँ । 'मे' यहाँ पर 'सुप्' का व्यत्यय हुआ है 1 राजा की इस अभ्यर्थना के उत्तर में मुनि ने जो कुछ कहा, अब उसका वर्णन करते हैं अभओ पत्थिवा तुब्भं, अभयदाया भवाहिय । अणिच्चे जीवलोगम्मि, किं हिंसाए पसजसी ॥११॥ अभयं पार्थिव ! तव, अभयदाता भव च । अनित्ये जीवलोके, किं हिंसायां प्रसजसि ॥ ११ ॥ पदार्थान्वयः – पत्थिवा- हे पार्थिव ! तुब्भं तुझे अभओ - अभय है अभयदाया- अभय देने वाला भवाहि- तू हो य - पुनः अणिच्चे - अनित्य जीवलोगम्मिजीवलोक में किं-क्यों हिंसाए - हिंसा में पसज्जसि - आसक्त हो रहा है । मूलार्थ —- हे पार्थिव ! तुझे अभय है । तू भी अभय देने वाला हो । अनित्य जीवलोक में क्यों हिंसा में आसक्त हो रहा है ?
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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