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अष्टादशाध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
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टीका-जिस समय राजा ने वहाँ पर एक ध्यानारूढ तपस्वी मुनि को देखा, उस समय वह भयभीत सा हो गया । फिर अपने मन में विचार करने लगा कि अहो ! मैं बड़ा ही मन्दभागी हूँ, जो कि मैंने इन मृगों के साथ थोड़ा सा इस मुनि को भी अभिहनन कर दिया ! अर्थात् थोड़े से काम के वास्ते मैंने इस मुनि का बड़ा भारी अपराध किया, जो कि इन मृगों का विनाश किया । यह मेरी रसगृद्धिमांसलोलुपता और घातकता का सजीव चित्र है ! जो कि मैंने इस महात्मा के मृगों का अभिहनन करके इनको भी थोड़ा सा अभिहत किया । तात्पर्य कि इन मृगों के विनाश से इस महात्मा के चित्त को जो खेद पहुँचा है, वही मनाक् अभिहनन है। __इसके अनन्तर उस राजा ने क्या किया ? अब इसी विषय में कहते हैं
आसं विसजइत्ता णं, अणगारस्स सो निवो। विणएण वन्दए पाए, भगवं एत्थ मे खमे ॥८॥
अश्वं विसृज्य, अनगारस्य स नृपः। विनयेन वन्दते पादौ, भगवन्नत्र मे क्षमख ॥८॥
पदार्थान्वयः-आसं-घोड़े को विसज्जइत्ता-छोड़ करके अणगारस्सअनगार के सो-वह निवो-नृप विणएणं-विनय से वन्दए-वन्दना करता है पाएपाँवों को भगवं-हे भगवन् ! एत्थ-इस मृगवध के सम्बन्ध में मे-मेरा-अपराध खमे-क्षमा करो। - मूलार्थ-तदनन्तर वह राजा अश्व को छोड़कर मुनि के चरण कमलों की वन्दना करता है और कहता है कि हे भगवन् ! मेरे इस अपराध को चमा करो।
टीका-इसके अनन्तर वह राजा तुरंत ही घोड़े पर से उतरकर उस मुनि के चरणों में गिरकर क्षमा माँगने लगा और कहने लगा कि हे भगवन् ! मैंने अज्ञानता से आपके इन मृगों का जो वध किया है, इसके लिए मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ अर्थात् आप मुनिराज मेरे इस महान् अपराध को क्षमा करें । इसके अतिरिक्त इस गाथा से यह भी शिक्षा मिलती है कि अज्ञानवश यदि किसी से किसी का कोई