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________________ षोडशाध्ययनम् ]. हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [ ६७३ मोहराई - मन को हरने वाले और मणोरमाइं-मन को सुन्दर लगने वाले इन्दियाईइन्द्रियों को आलोएमा णस्स निज्झायमाणस्स - अवलोकन और ध्यान करते हुए बम्भचेरे - ब्रह्मचर्य में संका - शंका वा अथवा कंखा - कांक्षा वा - अथवा विगिच्छासन्देह वा अथवा समुप्पञ्जिज्जा - उत्पन्न होवे वा - अथवा भेद - संयम का भेद वा - समुच्चयार्थ में लभेजा - प्राप्त करे उम्मायं - उन्माद को पाउणिज्जा - प्राप्त करे वा - अथवा दीहकालियं - दीर्घकालिक रोगायक - रोगातंक हवेज्जा - होवे वा - अथवा केवलिपन्नत्ताओ - केवलिप्रणीत धम्माओं-धर्म से भंसेज्जा - भ्रष्ट होवे तम्हाइसलिए खलु - निश्चय से नो- नहीं निग्गन्थे - निर्ग्रन्थ इत्थी - स्त्रियों के मोहराईमनोहर- — मन को हरने वाले मणोरमाई - मनोरम – सुन्दर इन्दियाई - इन्द्रियों को आलोएज्जा - आलोकन करे निज्झाएजा - ध्यान करे 1 मूलार्थ — जो स्त्रियों की मनोहर और मनोरम इन्द्रियों का अवलोकन - और ध्यान नहीं करता, वह निर्ग्रन्थ है । कैसे ? शिष्य की इस शंका पर आचार्य कहते हैं कि जो निर्ग्रन्थ ब्रह्मचारी स्त्रियों की मनोहर और मनोरम इन्द्रियों को देखता और ध्यान करता है, उसके ब्रह्मचर्य में शंका, आकांक्षा और विचिकित्सा के उत्पन्न होने की सम्भावना रहती है, संयम का विनाश होता है, उन्माद की उत्पत्ति तथा दीर्घकालिक भयंकर रोगों का आक्रमण होता है एवं केवलिप्रणीत धर्म से वह पतित हो जाता है। इसलिए निर्ग्रन्थ, स्त्रियों की मनोहर और सुन्दर इन्द्रियों का अवलोकन और ध्यान न करे । टीका - ब्रह्मचर्य के चतुर्थ समाधि - स्थान में निर्ग्रन्थ भिक्षु को स्त्रियों के अंगों के अवलोकन और ध्यान करने का निषेध किया गया है। तात्पर्य कि निर्ग्रन्थ साधु मन को हरने और आह्लाद उत्पन्न करने वाले स्त्रियों के अंगों को सामान्य अथच विशेष रूप से न देखे । क्योंकि स्त्रियों के अंगों का वार वार अवलोकन करने से उसके ब्रह्मचर्य में पीछे बतलाये गये शंका आदि समस्त दोषों के उत्पन्न होने की संभावना रहती है । एवं संयम के विनाश और धर्म से पतित होने का भय रहता है। इसलिए निर्मन्थ ब्रह्मचारी को अपने ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए स्त्रीजनों को कामदृष्टि से कभी भी अवलोकन नहीं करना चाहिए । यहाँ पर 'आलोकिता' शब्द का अर्थ ईषद्रष्टा और 'निर्ध्याता' शब्द का अर्थ प्रबन्ध से निरीक्षण करने वाला है । सारांश कि ब्रह्मचारी
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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