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[ षोडशाध्ययनम्
ब्रह्मचर्य में शंका का उत्पन्न होना । जैसे कि – क्या मैं मैथुन का सेवन करूँ अथवा न करूँ ? अथच जो ब्रह्मचारी ऐसे स्थानों का सेवन करते हैं, वे ब्रह्मचारी हैं या नहीं ? आकांक्षा—स्त्री के मिलने पर मैं अवश्य ही उसका संग कर लूँगा, अथवा मैंने जो यह ब्रह्मचर्य रूप धर्म को धारण किया है, इसका फल मुझे मिलेगा या ि नहीं ? तात्पर्य कि जब मोहनीय कर्म का प्रबल उदय होता है, तब मनुष्य के मुख
'इस प्रकार के शब्द निकलते हैं— “सत्यं वच्मि हितं वच्मि सारं वच्मि पुनः पुनः । अस्मिन्नसारे संसारे सारं सारंगलोचना ||" इत्यादि । इसके अनन्तर फिर ये भाव उत्पन्न होने लगते हैं कि — तीर्थकरों ने जो मैथुनक्रीड़ा के दोष वर्णन किये हैं, वास्तव में वे दोष नहीं हैं । जब इस प्रकार का सन्देह उत्पन्न हो गया तो फिर वह विचारने लगता है कि-' - "प्रियादर्शनमेवास्तु, किमन्यैर्दर्शनान्तरैः । प्राप्यते येन निर्वाणं सरागेणापि चेतसा ॥" इत्यादि । जब इस प्रकार की आकांक्षा उत्पन्न हो गई तो फिर धर्म में तो सन्देह उत्पन्न हो ही जाता है । उस सन्देह का परिणाम यह निकलता है कि चारित्र धर्म का विनाश हो जाता है । फिर उसको उन्माद — पागलपन — हो जाता है। इसका परिणाम दीर्घकालिक रोगों की उत्पत्ति है । इस प्रकार अन्त में वह केवली भगवान् से प्रतिपादित धर्म से पतित हो जाता है । अतः ब्रह्मचारी निर्मन्थ के लिए स्त्री, पशु और नपुंसक संसेवित स्थान का सर्वथा त्याग करना ही समुचित और शास्त्र सम्मत है ।
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अब द्वितीय समाधि स्थान का वर्णन करते हैं। यथा
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नो इत्थीणं कहं कहित्ता हवइ से निग्गन्थे । तं कहमिति चे ? आयरियाह — निग्गन्थस्स खलु इत्थीणं कह कहेमाणस्स बम्भयारिस्स बम्भचेरे संका वा कंखा वा विइगिच्छा वा समुप्पज्जिज्जा, भेयं वा लभेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीहकालियं वा रोगायंकं हवेज्जा, केवलिपन्नत्ताओ धम्माओ भंसेखा, तम्हा नो इत्थीणं कह कहेज्जा ॥२॥
उत्तराध्ययनसूत्रम्