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________________ को दिए गए शिक्षण के समान हितकारी समझता है और पापदृष्टि अर्थात् मूर्ख शिष्य उसी हित-शिक्षण को अपने लिए दास की शिक्षा के तुल्य मानता है । टीका–संसार में दृष्टिभेद ही सब जगह पर काम कर रहा है। आज संसार में जितनी भी विषमता देखी जाती है उसका कारण दृष्टि-भेद अथवा अध्यवसाय-भेद है । वस्तु एक अथवा समान होने पर भी रुचि भेद या दृष्टिभेद उसे भिन्न-भिन्न रूपों में उपस्थित कर देता है । इसीलिए जो बात एक के लिए रुचिप्रद होती है, दूसरा उससे घृणा करता है । यही दशा शास्त्रों के उत्तम उपदेश और गुरुजनों के भेद-भाव से रहित अनुशासन की है। शास्त्रों का सदुपदेश यद्यपि सबके लिए समान होता है तथापि बहुत से व्यक्ति तो उसको कल्याणप्रद और उन्नतिसाधक समझते हुए उत्तम आचरण द्वारा उससे लाभ उठाते हैं तथा बहुत से ऐसे सज्जन भी हैं जो उक्त शास्त्रीय उपदेश को आत्मा के अधःपतन का कारण समझते हुए उससे कोसों दूर भागते हैं। इसका कारण सिवाय अध्यवसाय अथवा दृष्टिभेद के और कुछ नहीं है । गुरुजनों के सदुपदेश अथवा शिक्षण की भी ठीक यही दशा है। उनकी हित- शिक्षा बिना किसी भेद-भाव को लिए हुए सारे शिष्य- समुदाय के लिए समान कोटि की होती है, परन्तु पात्र-भेद से वह भी उत्तम और अधम फल देने वाली हो जाती है । विनीत शिष्य तो उनके अनुशासन को परम कल्याण के देने वाला समझता है और पापदृष्टि- अविनीत शिष्य की दृष्टि में वह अनुशासन एक प्रकार की साधु-जन - विगर्हित भर्त्सनामात्र है। मूल गाथा में न्यूनाधिक शब्दों द्वारा इसी भाव को व्यक्त किया गया है। बुद्धिमान शिष्य तो गुरुजनों के सहज कठोर शासन को भी पुत्र, भ्राता और सम्बन्धी जनों के शासन-समान हितकर समझता है और अविनीत शिष्य उसे दास को दी जाने वाली कठोर शिक्षा के समान अहितकर समझता है। इस समस्त कथन का अभिप्राय यह है कि गुरुजनों के शासन करने पर बुद्धिमान् शिष्य अपने मन में विचार करता है कि पिता हित - बुद्धि से ही पुत्र को शिक्षा देता है, भाई इसीलिए भाई को समझाने-बुझाने की चेष्टा करता है कि भाई के लिए उसके हृदय में स्नेह-सरिता की ऊर्मियां लहरा रही हैं। एक सम्बन्धी का अपने दूसरे सम्बन्धी को बोध देना भी उसके आन्तरिक स्नेह काही द्योतक है। इसी प्रकार गुरुजनों का जो मेरे लिए यह सहज कठोर शासन है इसमें भी गुरुदेव की कृपामयी हित-कामना ही काम कर रही है। इसलिए गुरुजन जो कुछ भी कहते सुनते हैं, वह सब कुछ मेरे ही भले के लिए है, इसमें इनका स्वार्थ कुछ भी नहीं है। ऐसा विचार कर वह बुद्धिमान् शिष्य गुरुजनों की इच्छा के अनुकूल आचरण करता हुआ अपने आत्मा को मोक्ष मार्ग का दृढ़ पथिक बना लेता है । जो पापदृष्टि — मूर्ख शिष्य है, उसका विचार उससे सर्वथा विपरीत होता है । वह गुरुजनों के शासन को हितकर एवं कल्याणप्रद समझने के बदले उसको एक निकृष्ट प्रकार की भर्त्सना मानता है । उसके हृदय पर गुरुजनों के अनुशासन का विपरीत प्रभाव पड़ने से वह अपनी आत्मा में इस प्रकार का कुंविचार उत्पन्न करता है कि इन गुरुओं का अब मेरे ऊपर बिल्कुल स्नेह नहीं रहा। ये तो स्नेह के बदले मेरे ऊपर अब द्वेष ही रखने लग गए हैं। इसलिए ये रात - दिन मेरे को कोसते रहते हैं । मेरे साथ श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 95 / विणयसुयं पढमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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