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________________ खड्डुका मे चपेटा मे, अक्रोशाश्च वधाश्च मे | कल्याणमनुशिष्यमाणः, पापदृष्टिरिति मन्यते || ३८ ॥ पदार्थान्वय : मे—मुझे, खड्डुया–ठोकरें मारते हैं, मे—मेरे, चवेडा-चांटे मारते हैं, य—और, मे—मुझे, अक्कोसा—कोसते हैं, य—और, मे—मुझे, वहा—मारते हैं, कल्लाणं-कल्याण रूप, अणुसासन्तो-अनुशासन को, पावदिट्ठि—पापदृष्टि, त्ति—इस प्रकार, मन्नई—मानता है। मूलार्थ—गुरु मेरे को ठोकरें मारते हैं, चांटे मारते हैं और मुझे कोसते तथा मारते हैं, पाप-दृष्टि शिष्य गुरुजनों के हित-शासन को इस प्रकार मानता है। टीका–जिस प्रकार सांप को पिलाया हुआ गोदुग्ध भी विष के रूप में परिणत हो जाता है, इसी प्रकार मूर्ख शिष्य को दी गई हितशिक्षा का भी भयंकर ही परिणाम निकलता है। गुरुजनों का सहज कठोर शासन तो केवल शिष्य के हित और सुधार के लिए होता है, परन्तु अविनीत मूर्ख शिष्य तो उसे केवल द्वेषमूलक कठोर दंड समझने लगता है और गुरुओं के हित-वचन को भी अहित रूप समझकर उन पर क्रोध करने लगता है, तथा नाना प्रकार के उपालम्भों से उन्हें दूषित करने की चेष्टा करने लगता है। यथा—ये कैसे गुरु बने बैठे हैं, ये तो मुझे चांटे मारते हैं और रात-दिन मुझे कोसते हैं, एवं मुझे मारने को तैयार रहते हैं, इत्यादि । यद्यपि गुरुजनों का शासन तो मेघ-जल के समान सबको समान रूप से शान्ति देने वाला और इस लोक तथा परलोक दोनों में ही कल्याणकारी है, तथापि मूर्ख शिष्य उसको उलटा अपने लिए अहितकारक ही समझता हुआ गुरुजनों से द्वेष करके उनसे विपरीत आचरण करने लगता है। ___ अतः गुरुजनों को भी उचित है कि वे शिक्षा देने से पहले शिष्य की योग्यता की परीक्षा अवश्य कर लिया करें, ताकि उनका शासन विफल न हो। अब शास्त्रकार इसी विषय में कुछ अन्य जानने योग्य बातों का उल्लेख करते हुए कहते हैं पुत्तो मे भाय नाइ त्ति, साहू कल्लाण मन्नई। पावदिट्ठी उ अप्पाणं, सासं दासि त्ति मन्नई ॥ ३६॥ पुत्रो मे भ्राता ज्ञातिरिति, साधुः कल्याणं मन्यते । पापदृष्टिस्त्वात्मानं शिष्यमाणो दास इति मन्यते || ३६ ॥ पदार्थान्वयः—मे—मुझे, पुत्तो—पुत्र के समान, भाय—भ्राता के समान, नाइ–ज्ञाति बन्धु के समान, त्ति—इस प्रकार, साहू–साधु-विनयवान्, कल्लाण—गुरुओं के शिक्षण को कल्याण रूप, मन्नई—मानता है, उ—फिर, पावदिट्ठी खोटी बुद्धि वाला उस, सासं—शासन को, अप्पाणं अपने आत्मा के लिए, दासि—दास की, त्ति—तरह, मन्नई—मानता है। मूलार्थ विनीत शिष्य तो गुरुजनों के शासन को पुत्र, भ्राता और ज्ञाति अर्थात् सम्बन्धी जनों श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 94 / विणयसुयं पढमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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