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________________ आसन पर न बैठने तथा बैठे हुए हाथ, पैर हिलाने से बहिर्मुखता के बढ़ने की आशंका रहती है, परन्तु इसके विपरीत स्थिर आसन पर समाहित चित्त होकर बैठने से उस शिष्य के ज्ञान-ध्यान में वृद्धि होगी, जिसका फल उसके लिए तथा देखने वाले दूसरों के लिए भी हितकर ही होगा। ___ इसलिए योग्य शिष्य को उचित है कि वह अपने गुरुजनों की अपेक्षा ऊंचे आसन पर न बैठे तथा गुरुओं की अपेक्षा अधिक सुन्दर और मूल्यवान् वस्त्रों को न पहने। तात्पर्य यह है कि योग्य शिष्य द्रव्य और भाव दोनों प्रकार से गुरुजनों की अपेक्षा अपने को लघुता में रखे, ताकि वह विनयाचार की सम्यक् आराधना से प्रभुता के उच्च सिंहासन पर विराजमान होने के योग्य बन जाए। अब सूत्रकार एषणा समिति के विषय में कहते हैं कालेण निक्खमे भिक्खू, कालेण य पडिक्कमे । अकालं च विवज्जित्ता, काले कालं समायरे ॥३१॥ .. कालेन निष्क्रमेद् भिक्षुः, कालेन च प्रतिक्रमेत् । अकालं च विवर्य, काले कालं समाचरेत् ॥ ३१ ॥ पदार्थान्वयः भिक्खू भिक्षु–साधु, कालेण—समय होने पर, निक्खमे भिक्षा के लिए जाए, य—और, कालेण—समय पर, पडिक्कमे—आ जाए, च–पुनः, अकालं असमय को, विवज्जित्ता-त्याग कर, काले-समय पर, कालं–प्रतिलेखनादि का जो कार्य है उसका, समायरे—आचरण करे। मूलार्थ—साधु समय पर भिक्षादि के लिए जाए और समय पर वापस आ जाए तथा असमय को त्यागकर नियत समय पर प्रतिलेखनादि क्रियाओं का आचरण करे। __टीका—इस गाथा में साधु की धार्मिक क्रियाओं के नियत समय-विभाग की सूचना दी गई है, अर्थात् साधु के लिए जिस समय पर जिस क्रिया के अनुष्ठान की आज्ञा शास्त्र में दी गई है उसको उसी समय पर नियत रूप से करना चाहिए । यथा-भिक्षा का समय होते ही साधु अपने निवासस्थान अर्थात् उपाश्रय आदि से भिक्षा आदि लाने के लिए निकले और भिक्षा लेकर नियत समय पर ही उपाश्रय में वापिस आ जाए तथा प्रतिक्रमण, प्रतिलेखना आदि अन्य धार्मिक कृत्यों को भी विचार-शील साधु समय पर ही करे, समय का अतिक्रमण करके अर्थात् असमय में कोई भी कृत्य न करे। प्रत्येक मनुष्य की जीवनचर्या का समय के साथ बड़ा ही घनिष्ठ सम्बन्ध है, जो लोग अपने जीवन के कार्य-विभाग का उपयोग ठीक समय के अनुसार करते हैं, उनका जीवन सुखी और सुव्यवस्थित होने के अतिरिक्त दूसरों के लिए आदर्श भी होता है। ___ समय एक बड़ी ही बहुमूल्य वस्तु है, इसके सदुपयोग पर ही जीवन की उत्कृष्टता निर्भर है। जो लोग मनुष्य-जन्म पाकर भी समय का सदुपयोग नहीं करते, अर्थात् इसको यों ही व्यर्थ खो देते हैं, वे वस्तुतः आत्मघाती हैं, उनको अन्त में इतना पश्चात्ताप करना पड़ता है कि उसकी कल्पना भी नहीं हो श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 86 /विणयसुयं पढमं अज्झयणं .
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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