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________________ मूलार्थ - सप्तविध भय रहित बुद्धिमान् शिष्य गुरुजनों के कठोर शासन को भी अपने लिए हितकर मानते हैं, परन्तु मूर्खजनों के लिए वही शासन द्वेष का कारण बन जाता है, जोकि क्षान्ति और आत्म शुद्धि का स्थान है । टीका - इस गाथा में भी पहली गाथा की भांति मूर्ख और बुद्धिमान शिष्य की योग्यता को परखने का उपदेश दिया गया है । विनयधर्म की आराधना में सतत प्रवृत्ति रखने वाले बुद्धिमान् शिष्य तो अपने गुरुजनों के कठोर शासन को भी अपने हित का साधक समझते हैं और उस शासन से अपने में आत्म-शुद्धि और क्षमा आदि सद्गुणों को प्राप्त करते हैं, परन्तु मूर्खजनों के लिए वही शासन का कारण बन जाता है। इसके प्रभाव से वे अपने में प्रसुप्त द्वेष रूप दावानल को और भी अधिक प्रदीप्त करते हुए अपने आत्मा को अधिक मलिन और क्रोध का आगार बना लेते हैं। इसमें गुरुजनों का तो अणुमात्र भी दोष नहीं, वे तो कृपा - बुद्धि से सब को हितशिक्षा ही देते हैं, परन्तु ग्रहण करने वालों के हृदय स्थान के संसर्ग से उसमें जो विषमता पैदा होती है उसी का ही यह प्रभाव है कि बुद्धिमान् शिष्य तो उससे लाभ उठाते हैं और मूर्ख हानि का अनुभव करते हैं। अब फिर विनयाचार के विषय में कहते हैं आसणे उवचिट्टेज्जा, अणुच्चे अकुए थिरे अप्पुट्ठाई, निरुट्ठाई, निसीएज्जप्पकुक्कुए ॥ ३० ॥ आसने उपतिष्ठेत्, अनुच्चे अकुचे स्थिरे । अल्पोत्थायी निरुत्थायी, निषीदेदल्पकुक्कुचः ॥ ३० ॥ पदार्थान्वयः– आसणे –—–— आसन पर, उवचिट्ठेज्जा — बैठे, अणुच्चे – जो ऊंचा नहीं है, अकुए -- अस्पन्दमान, थिरे - स्थिर है, अप्पुट्ठाई – थोड़ा उठने वाला, निरुट्ठाई — बिना प्रयोजन न उठने वाला, अप्प - थोड़ी, कुक्कुए — हस्तादि की चेष्टा से, निसीएज्ज–— बैठे । मूलार्थ — शिष्य चेष्टा - रहित होकर ऐसे आसन पर बैठे जो गुरु से ऊंचा न हो, स्थिर हो, चलायमान न हो और उक्त प्रकार के आसन पर बैठा हुआ भी बिना प्रयोजन उठे नहीं तथा प्रयोजन होने पर भी थोड़ा उठे । टीका - इस गाथा में शिष्य का आसन-सम्बन्धी विनयाचार किस प्रकार का होना चाहिए, इस बात की चर्चा की गई है। गुरुजनों की अपेक्षा शिष्य का आसन सदैव नीचा ही होना चाहिए, अर्थात् विनीत शिष्य जिस पीठादि आसन पर बैठे वह आसन गुरुओं के आसन से आकारादि में न्यून हो, स्थिर हो और चलायमान न हो तथा उस आसन पर स्थिरतापूर्वक बैठे और बिना प्रयोजन उस आसन से न उठे एवं प्रयोजन होने पर भी बहुत कम उठे। इन सब बातों का तात्पर्य यह है किं शिष्य में अविनीतता और बहिर्मुखता न आने पाए। यदि गुरुओं की अपेक्षा शिष्य ऊंचे आसन पर बैठेगा तो इसमें उसकी उद्धतता प्रकट होगी और अस्थिर, चंचल आसन पर बैठने से उसकी समाधि में अन्तर पड़ेगा एवं स्थिरचित्त होकर श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 85 / विणयसुयं पढमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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