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इस विषय का वर्णन निम्नलिखित गाथा में किया गया है
एवं विणयजुत्तस्स, सुत्तं अत्थं च तदुभयं । पुच्छमाणस्स सीसस्स, वागरिज्ज जहासुयं ॥ २३ ॥
एवं विनययुक्तस्य, सूत्रमर्थञ्च, तदुभयम् । .
पृच्छतः शिष्यस्य, व्यागृणीयाद् यथाश्रुतम् ॥ २३ ॥ पदार्थान्वयः—एवं इस प्रकार, विणयजुत्तस्स–विनय-युक्त, सीसस्स-शिष्य को, सुत्तं सूत्र, च-और, अत्थं—अर्थ, तदुभयं-सूत्र और अर्थ दोनों को, पुच्छमाणस्स—पूछने वाले को, जहासुयं—जैसे सुना है, वागरिज्ज–कहे।
मूलार्थ—इस प्रकार विनययुक्त-शिष्य के पूछने पर गुरु सूत्र, अर्थ और सूत्र एवं अर्थ दोनों को गुरु परम्परा से जैसे सुना है उसी प्रकार कहे।
टीका–विनयाचार का जो स्वरूप पहले वर्णित किया गया है उसके अनुकूल आचरणं रखने वाला शिष्य यदि गुरुओं के समीप आकर सूत्र के विषय में या अर्थ के विषय में अथवा दोनों के विषय में श्रद्धापूर्वक कुछ पूछे तो गुरुजनों का कर्तव्य है कि वे बिना किसी संकोच के गुरु-परम्परा द्वारा प्राप्त किए हुए सूत्रार्थ को उसे यथार्थ रूप में बताएं अर्थात् गुरुजनों ने अपने पूर्ववर्ती आचार्यों से जिस प्रकार की सूत्र और उसके अर्थ की धारणा की हुई है उसी को शिष्य के प्रति बताएं। इससे श्रुतज्ञान की सफलता और चिरस्थायित्व बना रहता है, अन्यथा श्रुतज्ञान के विकृत हो जाने की सम्भावना रहती है, अतः परम्परागत आम्नाय की रक्षा करना भी योग्य गुरुओं और शिष्यों का पालनीय कर्त्तव्य है। अब सूत्रकार वाग्विनय के विषय में कहते हैं
मुसं परिहरे भिक्खू, न य ओहारिणिं वए । भासादोसं परिहरे, मायं च वज़्जए सया ॥ २४ ॥
मृषां परिहरेद्, भिक्षुः, न चावधारिणिं वदेत् ।
भाषादोषं परिहरेत् मायां च वर्जयेत् सदा || २४ ॥ पदार्थान्वय :-मुसं—झूठ को, भिक्खू साधु, परिहरे—त्याग दे, च—और, ओहारिणिं निश्चयात्मक भाषा को, न—न, वए—कहे, भासादोसं-भाषा के दोष को, परिहरे—दूर करे, च-और, मायं—माया को, सया–सदा ही, वज्जए—त्याग दे। ____ मूलार्थ—साधु झूठ को त्याग दे और निश्चयात्मक भाषा को न बोले, भाषा के दोष को भी छोड़ दे और माया अर्थात् कपट को सदा के लिए त्याग दे। टीका—इस गाथा में वचन की शुद्धि के लिए वचनगत दोषों के त्याग का आदेश दिया गया है।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 80 / विणयसुयं पढमं अज्झयणं