________________
कर्मबन्ध के असाधारण कारण हैं, तथापि मेरे लिए ये दुर्जेय हैं, अतः मैं विवश हूं जो कि इन विषय-भोगों की असारता, दुष्टता और मोहकता को जानते हुए भी इनका परित्याग करने में समर्थ नहीं हूं।
अब फिर इसी विषय को स्पष्ट करते हुए कहते हैं—
हत्थिणपुरम्मि चित्ता!, दट्ठूणं नरवई महिड्डियं । कामभोगेसु गिद्धेणं, नियाणमसुहं कडं ॥ २८ ॥ हस्तिनापुरे चित्त ! दृष्ट्वा नरपतिं महर्द्धिकम् । कामभोगेषु गृद्धेन, निदानमशुभं कृतम् || २८ ||
पदार्थान्वयः—–—हत्थिणपुरम्मि—–— हस्तिनापुर में, चित्ता - हे चित्त !, नरवई —–— नरपति — सनत्कुमार चक्रवर्ती, महिड्डियं—–महाऋद्धि वाले को, दट्ठूणं – देखकर ! कामभोगेसु — कामभोगों में, गिद्धेणंआसक्ति रखने वाले मैंने, नियाणं – निदान, असुहं— अशुभ, कडं — किया ।
मूलार्थ - हे चित्त ! हस्तिनापुर में महासमृद्धि वाले नरपति सनत्कुमार चक्रवर्ती को देखकर काम-भोगों में आसक्त होने के कारण मैंने अशुभ निदान किया।
टीका – अपनी भूल को स्वीकार करते हुए चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त ने कहा कि मैंने हस्तिनापुर में सनत्कुमार चक्रवर्ती की विलक्षण समृद्धि को देखा और उससे आकर्षित होकर उसकी प्राप्ति के लि कठिन से कठिन तपश्चर्या॰करने लगा । इस प्रकार अन्तःकरण में बढ़ी हुई काम-भोग विषयिणी वासना से प्रेरित होकर मैंने जो निदान किया उसी का यह परिणाम है कि अब मेरे लिए इन विषय-भोगों का त्याग अत्यन्त कठिन हो रहा है।
इस विषय में इतना और समझ लेना चाहिए कि जो व्यक्ति सत्य और सरल प्रकृति के होते हैं, वे वस्तुतत्त्व को समझकर उस विषय में अपनी जो त्रुटि होती है उसको स्पष्ट कह देते हैं । यही दशा चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त की है। उसने चित्त मुनि से धर्मोपदेश सुनकर उसकी यथार्थता और उसके यथावत् पालन करने में अपनी असमर्थता स्पष्ट शब्दों में वर्णन करने के अनन्तर उसके कारणभूत अशुभ निदान के लिए पश्चात्ताप के रूप में अपनी त्रुटि को भी स्वीकार कर लिया है। सारांश यह है कि सम्यक्त्व की ओर आने वाले जीवों के ये ही लक्षण होते हैं ।
क्या निदान कर्म का प्रतिरोध नहीं हो सकता ? अब इसी विषय का वर्णन करते हैं । यथा— तरस मे अप्पडिकंतस्स, इमं एयारिसं फलं । जाणमाणो वि जं धम्मं, कामभोगेसु मुच्छिओ ॥ २६ ॥ तस्मान्ममाप्रतिक्रान्तस्य, इदमेतादृशं फलम् । जानन्नापि यद् धर्मं, कामभोगेषु मूर्च्छितः || २६ ||
पदार्थान्वयः—–— तस्स —–— उस निदान कर्म से, मे-मुझे, अप्पडिकंतस्स — अप्रतिक्रान्त को, इमं—
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 469 / चित्तसम्भूइज्जं तेरहमं अज्झयणं