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________________ नाट्यगीतैश्च वादित्रैः, नारीजनान् परिवारयन् I भुंक्ष्व भोगानिमान् भिक्षो!, मह्यं रोचते प्रव्रज्या खलु दुःखम् || १४ || पदार्थान्वयः—नट्टेहिं—नाटकों से, गीएहिं — गीतों से, य— और, वाइएहिं —वादित्रों से, नारीजणाई–नारी-जनों के, परिवारयंतो — परिवारों से परिपूर्ण, को, भिक्खू – हे भिक्षो! भुंजाहि —तुम भोगो ! मम – मुझे, पव्वज्जा — प्रव्रज्या, दुक्खं दुख रूप है। इमाई—– इन प्रत्यक्ष, भोगाई–भोगों रोयई— रु ई— रुचता है, हु – निश्चय ही, मूलार्थ — हे भिक्षो! नाटकों से, गीतों से, वादित्रों से तथा नारी - जनों के परिवार अर्थात् समूह से परिपूर्ण इन भागों को तुम भी भोगो, क्योंकि मुझे निश्चय ही प्रव्रज्या दुखरूप प्रतीत होती है। टीका- चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त कहते हैं कि 'हे मुने! विविध प्रकार के नाट्य और सुरताल पूर्ण गीतों तथा नाना प्रकार के वाद्यों एवं स्त्री - जनों के समूह से घिरे हुए इन भोगों को आप भोगें । यही मुझे ठीक प्रतीत होता है। आपका दीक्षित होना अर्थात् प्रव्रज्या ग्रहण करना मुझे अत्यन्त दुखरूप प्रतीत होता है, अतः इसको मैं उचित नहीं समझता । यद्यपि गज, अश्व आदि अनेक वस्तुएं राज्य में प्रधान होती हैं, तथापि सबसे अधिक लौकिक सुख का साधन यही पदार्थ हैं जिनका कि ऊपर वर्णन किया गया है। उसमें भी स्त्री को वैषयिक सख का सबसे प्रमुख साधन माना गया है, इसीलिए उसको प्रमुख स्थान दिया गया है। इस प्रकार विषय-जन्य लौकिक सुखों के उपभोग के लिए स्नेहपूर्वक आमन्त्रित करने पर उक्त मुनि ने जो प्रवृत्ति अंगीकार की अब उसी का सूत्रकार दिग्दर्शन कराते हैं तं पुव्वनेहेण कयाणुरागं, नराहिवं कामगुणेसु गिद्धं । धम्मस्सिओ तस्स हियाणुपेही, चित्तो इमं वयणमुदाहरित्या ॥ १५ ॥ तं पूर्वस्नेहेन कृतानुरागं नराधिपं कामगुणेषु गृद्धम् । धर्माश्रितस्तस्य हितानुप्रेक्षी, चित्त इदं वचनमुदाहृतवान् || १५ || पदार्थान्वयः—तं—उसको, पुव्वनेहेण - पूर्व स्नेह से, कयाणुरागं - किया है अनुराग जिसने, नराहिवं— नराधिप को, कामगुणेसु — काम - गुणों में जो, गिद्धं – गृद्ध है आसक्त है, धम्मस्सिओ धर्म में स्थित, तस्स—उसके, हियाणुपेही — हित की चाहना करने वाला, चित्तो - चित्त मुनि, मं—यह, वयणं—वचन, उदाहरित्था — कहने लगा । मूलार्थ — पूर्व स्नेह के कारण अनुरक्त और काम- गुणों में आसक्त उस चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त को देखकर धर्म में स्थित और उसका सदा हित चाहने वाले चित्त मुनि उसके प्रति ये वक्ष्यमाण वचन कहने लगे । टीका—ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के पूर्वभव - जन्य स्नेह को जानकर तथा उसकी विषय-भोगों में बढ़ी हुई लालसा को देखकर धर्म में आरूढ़ हुए वे चित्त मुनि ब्रह्मदत्त के हित - चिन्तन से उसके प्रति निम्न लिखित वचन कहने लगे । श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 459 / चित्तसम्भूइज्जं तेरहमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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