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इस कथन से चित्त मुनि ने सूत्ररूप गाथा की उपपत्ति तथा अपनी ज्ञान-गर्भित वैराग्यमयी दीक्षा का भली-भांति निदर्शन करा दिया है। यह सुनकर चक्रवर्ती अपनी समृद्धि का वर्णन करता हुआ उक्त मुनि से पुनः कहता है कि
उच्चोअए महु कक्के य बंभे, पवेइया आवसहा य रम्मा । इमं गिहं चित्त! धणप्पभूयं, पसाहि पंचालगुणोववेयं ॥ १३ ॥
उच्चोदयो मधुः कर्कश्च ब्रह्मा, प्रवेदिता आवसथाश्च रम्याः ।
इदं गृहं चित्त! प्रभूतधनं, प्रशाधि पंचालगुणोपपेतम् || १३ || पदार्थान्वयः-उच्चोअए—उच्चोदय, महु-मधु, कक्के—कर्क, य—और मध्य, बंभे–ब्रह्मा, पवेइया—कहे गए हैं, आवसहा-आवास, प्रासाद, य-और, रम्मा रमणीय हैं, इमं यह, गिहं—घर, चित्त-हे चित्त! धणप्पभूयं—धन से प्रभूत हैं, पंचाल—पांचालदेश के, गुणोववेयं—गुणों से युक्त हैं, इसलिए हे मुने, पसाहि-तू भी इसको भोग । ____ मूलार्थ—१. उच्चोदय, २. मधु, ३. कर्क, ४. मध्य और, ५. ब्रह्मा ये पांच प्रासाद कहे गए हैं
और हे चित्त! ये मेरे पांचों प्रासाद प्रभूत धन से युक्त हैं और पांचाल देश के गुणों से युक्त हैं, इसलिए तू भी इनको भोग। ____टीका–चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त चित्तमुनि से कहते हैं कि हे मुने! सूत्रधार के द्वारा भली प्रकार से निर्माण किए गए उच्चोदयादि पांचों ही प्रकार के प्रासाद मेरे पास विद्यमान हैं। इतना ही नहीं, किन्तु जहां पर भी मैं जाता हूं वहां पर ही देव-शक्ति के द्वारा ये तैयार हो जाते हैं और ये बड़े ही रमणीय हैं। मेरे ये राज-महल नाना प्रकार की सम्पत्तियों से भरपूर हैं और पांचाल देश के जो विशिष्ट से विशिष्टतर पदार्थ हैं, वे सभी इनमें विद्यमान हैं, अतः आप प्रसन्नता पूर्वक इन्हें ग्रहण करें और इनका उपयोग करें।
यहां पर पांचाल देश को प्रधानता देने का अभिप्राय है कि इस देश में ऋतुओं की पूर्ण रूप से प्रवृत्ति देखने में आती है और छः ऋतुओं के फल भी भली प्रकार से उपलब्ध होते हैं तथा रूप में भी आयु-पर्यन्त प्रायः परिवर्तन नहीं होता और वैसे भी यह देश समृद्धिपूर्ण है, अतः इसको प्राधान्य दिया गया है।
इसके अतिरिक्त 'प्रभूत' शब्द का यहां पर पर-निपात होना प्राकृत के नियम के अनुसार समझना चाहिए तथा चित्त शब्द यहां पर मुनि का वाचक है। चित्त शब्द का संस्कृत रूप चित्र भी होता है वह नानाविध धन का वाचक है।
अब फिर इसी विषय में कहते हैं
न हिं गीएहिं य वाइएहिं, नारीजणाई परिवारयन्तो । भुंजाहि भोगाइं इमाइं भिक्खू!, मम रोयई पव्वज्जा हु दुक्खं ॥१४॥
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 458 । चित्तसम्भूइज्जं तेरहमं अज्झयणं