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________________ उपांगादि संज्ञा भी उपादेय ही है, फिर भी यह विषय विद्वानों के लिये विचारणीय है। आचार्यवर्य श्री हेमचन्द्र जी ने अपने बनाए ‘अभिधानचिन्तामणि' नामक कोष में अंगशास्त्रों का नामोल्लेख करते हुए 'केवल उपांग-युक्त अंग-शास्त्र हैं' ऐसा कहकर विषय की पूर्ति कर दी है, किन्तु जिस प्रकार अंग-शास्त्रों के नामोल्लेख किए हैं, ठीक उसी प्रकार किस-किस अंग का कौन-कौन सा उपांग-शास्त्र है यह नहीं लिखा है। इससे भी यह कल्पना अर्वाचीन ही सिद्ध होती है। हां, यह अवश्य मानना पड़ेगा कि यह कल्पना अभयदेव सूरि या मलयगिरि आदि वृत्तिकारों से पूर्व की है, क्योंक उपांगों के वृत्तिकार वृत्ति की भूमिका में उस उपांग का किस अंग से सम्बन्ध है, इस प्रकार का लेख स्फूट रूप से करते हैं। अतः वृत्तिकारों के समय से भी यह कल्पना पूर्व की है, इसलिए यह कल्पना श्वेताम्बर आम्नाय में सर्वत्र प्रमाणित मानी गई है। विधि-विरुद्ध स्वाध्याय के दोष जिस प्रकार सातों स्वरों और रागों के समय नियत हैं—जिस समय का जो राग होता है, यदि उसी समय पर उसका गायन किया जाए, तो वह अवश्य आनन्द-प्रद होता है। और यदि समय-विरुद्ध राग अलापा जाए तब वह सुखदायी नहीं होता। ठीक इसी प्रकार शास्त्रों के स्वाध्याय के विषय में भी जानना चाहिए। जिस प्रकार विद्यारम्भ संस्कार के पूर्व ही विवाह-संस्कार और भोजन के पश्चात् स्नानादि क्रियाएं सुखप्रद नहीं होती और जिस प्रकार समय का ध्यान न रखते हुए असम्बद्ध भाषण करना कलह का उत्पादक माना जाता है, ठीक उसी प्रकार बिना विधि के किया हुआ स्वाध्याय भी लाभदायक नहीं होता। जिस प्रकार लोग शरीर पर यथास्थान वस्त्र धारण करते हैं, यदि वे बिना विधि के तथा विपरीतांगों पर धारण किए जाएं तो उपहास के योग्य बन जाते हैं, ठीक इसी प्रकार स्वाध्याय के विषय में भी जानना चाहिए | अतः सिद्ध हुआ कि विधि-पूर्वक किया हुआ स्वाध्याय ही समाधिकरण माना जाता है। जिस प्रकार उक्त विषय विधि-पूर्वक किए हुए ही “प्रिय' होते हैं, ठीक उसी प्रकार स्वाध्याय भी विधि-पूर्वक किया हुआ ही आत्म-विकास का कारण होता है। प्रस्तुत शास्त्र की पहली दशा में उस विषय का स्फुट रूप से वर्णन किया गया है। स्वाध्याय का समयं स्वाध्याय के लिए जो समय आगमों में बताया गया है, उसी समय शास्त्र का स्वाध्याय करना चाहिए, किन्तु अनध्याय काल में स्वाध्याय वर्जित है। ___ मनुस्मृति आदि स्मृतियों में भी स्वाध्याय एवं अनध्याय-काल का विस्तार-पूर्वक वर्णन किया गया है, क्योंकि मनु आदि ऋषि वेद के भी अनध्यायों का उल्लेख करते हैं। इसी प्रकार अन्य आर्ष ग्रन्थों का भी अनध्याय-काल माना जाता है। इसी प्रकार जैनागमों के सर्वज्ञोक्त, देवाधिष्ठित तथा स्वर-विद्या-संयुक्त होने के कारण इनका भी अनध्याय-काल आगमों में वर्णित है। यथा___ “दसविधे अंतलिक्खिते असज्झाइए पण्णत्ते, तं जहा—उक्कावाते, दिसिदाघे, गज्जिते, श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 43 /स्वाध्याय
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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