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लेकर नगर के बाहर आया और आकर दोनों साधुओं को नमस्कार करके अपने एवं मंत्री के अपराध के लिये क्षमा प्रदान करने की प्रार्थना करने लगा। . उस समय उसकी रानी ने भी अपना सिर नीचा करके संभूति मुनि को नमस्कार किया। नमस्कार करते समय रानी के केशों में लगे हुए गोशीर्ष - चन्दन के तेल का एक बिन्दु संभूति मुनि के चरणों पर गिर पड़ा, जिससे संभूति मुनि का क्रोध उपशान्त हो गया तथा वह आंखें खोलकर रानी को देखने लगा और उसके रूप लावण्य को देखकर उस पर मोहित हो गया। तब उस समय संभूति मुनि ने यह निदान बांधा कि यदि मेरे घोर तप और संयम का फल हो तो मैं भी मर कर इस प्रकार का चक्रवर्ती बनकर इस प्रकार की रानी के साथ भोगविलास-जन्य सुखों का अनुभव करूं । परन्तु उक्त विचार की आलोचना किए बिना ही वह काल-धर्म को प्राप्त हो गया और चित्त मुनि बिना किसी प्रकार के निदान किए. ही शुद्ध संयम को पालकर मृत्यु को प्राप्त हुए। वे दोनों प्रथम स्वर्ग में जाकर देवता बने। वहां पर स्वर्गीय सुखों का अनुभव करके आयु-कर्म को पूर्ण करके उनमें से चित मुनि का जीव तो पुरिमताल नगर के एक प्रधान सेठ के घर में पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ और संभूति का जीव कांपिल्यपुर नगर के ब्रह्मभूति नामक राजा की महारानी चुलनी की कुक्षि से चतुर्दश स्वप्नों के साथ पुत्र-रत्न के रूप में उत्पन्न हुआ। माता-पिता ने उसका नाम ब्रह्मदत रखा।
. किसी समय ब्रह्मभूति राजा को किसी असाध्य रोग ने ग्रस लिया, तब उसने अपने चारों प्रधान मित्रों, प्रान्तिक राजाओं को बुलाकर कहा-“मेरी मृत्यु के पश्चात् आप लोगों ने मेरे राज्य की पूरी सावधानी से व्यवस्था करनी है और जिस समय ब्रह्मदत्त राज्य के योग्य हो जाए उस समय इसका राज्याभिषेक कर देना । उन लोगों ने राजा के आदेश को नत-मस्तक होकर स्वीकार किया और राजा की मृत्यु हो गई। .. राजा के औदैहिक संस्कार करने के अनन्तर उन चारों राजाओं में से प्रथम दीर्घ नाम के राजा को राज्य की रक्षा के लिए नियुक्त किया गया, परन्तु वह रानी चुलनी से व्यभिचार करने में प्रवृत्त हो गया और उसके इस अपकृत्य का ब्रह्मदत्त को भी पता चल गया। तब एक दिन ब्रह्मदत्त काक और हंसनी का जोड़ा सामने रखकर दीर्घ राजा को सुनाकर बोला कि-"रे नीच काक ! यदि तूने इस हंसनी का संग किया तो याद रख मैं तुझे प्राण दण्ड दिये बिना न छोडूंगा। इस बात को राजा दीर्घ समझ गया। तब उसने रानी चुलनी के पास जाकर सारा भेद खोल दिया और साथ में यह भी कहा कि यह बालक भविष्य में हमारे लिए बहुत ही दुःखदायी होगा, अतः मैं तो अपने राज्य में ही जाता हूं !
रानी चुलनी विषय-वासनाओं में अन्धी हो रही थी, उसने राजा दीर्घ से कहा कि "हे प्रिय ! आप चिन्ता मत करें, मैं इस कुमार को मरवा डालूंगी। अतः हे प्राणनाथ ! आप मत जाइए, क्योंकि मैं तो अपने आपको आपके चरणों पर न्यौछावर कर चुकी हूं।
इसके अनन्तर उस रानी ने एक लाक्षागृह तैयार कराया और ब्रह्मदत्त का विवाह करके दम्पत्ति को उसी नवीन घर में शयन करने की आज्ञा दी तथा अग्नि द्वारा उस घर को जला देने का षड्यन्त्र भी रच दिया। परन्तु माता की इस गुप्त मंत्रणा को किसी मंत्री के द्वारा ब्रह्मदत्त ने भी जान लिया।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 449 | चित्तसम्भूइज्जं तेरहमं अज्झयणं
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