________________
(अह चित्तसम्भूइन्जं तेरहमं अन्झयणं
अथ चित्तसंभूतीयं त्रयोदशममध्ययनम् |
इस बारहवें अध्ययन में श्रुत और तप का माहात्म्य वर्णन किया गया है, श्रुत और तप उसी समय तक शुद्ध रह सकते हैं जब तक कि निदान न किया जाए, क्योंकि शास्त्रकारों ने निदान का फल अशुभ ही बताया है। इस विषय में चित्त और सम्भूति का उदाहरण अधिक स्पष्ट है जिससे कि निदान पूर्वक तप करने तथा निदान को त्याग कर तप करने का फलाफल प्रत्यक्ष रूप से प्रदर्शित किया गया है। अब इस तेरहवें अध्ययन में इन्हीं के विषय का उल्लेख करते हैं। चित्त और सम्भूति का संक्षिप्त आख्यान इस प्रकार है
साकेतपुर नाम के नगर में चन्द्रावतंसक राजा के पुत्र मुनिचन्द्र ने सागरचन्द्र नाम के किसी मुनि के पास दीक्षा अंगीकार की। फिर वह अनुक्रम से विहार करते-करते किसी वन में मार्ग भूल जाने से उसी वन में इधर-उधर भ्रमण करने लगे।
___ कुछ समय बाद क्षुधा और पिपासा से व्याकुल हुए वे मुनिचन्द्र मुनि एक गौशाला में पहुंचे। तब वहां पर रहने वाले चार गोपालों ने उनका स्वागत किया और बडी श्रद्धा से उन्हें दग्ध बहराया।
दुग्ध-पान करने के बाद उक्त मुनि ने उनको धर्म का उपदेश सुनाया। मुनि के शान्त और वैराग्यमय .उपदेश को सुनकर उन चारों ने उक्त मुनि से दीक्षा ग्रहण कर ली, परन्तु उन चारों में से दो ने तो शुद्ध
और निर्मल संयम का पालन किया तथा शेष दो ने संयम का तो पालन किया, किन्तु घृणा के साथ। वे चारों आयु-कर्म को पूर्ण करके प्रथम स्वर्ग में देवता के रूप से उत्पन्न हुए।
उनमें से जिन दो ने घृणा-पूर्वक संयम का पालन किया था वे दोनों देवलोक से च्यव कर शंखपुर नगर में शांडिल्य नामक ब्राह्मण की यशोमती नाम की दासी के घर पुत्र-रूप में उत्पन्न हुए ।
- वहां से फिर वे दोनों भाई सर्प के दंश से मृत्यु को प्राप्त होकर कालिंजर नाम के पर्वत में मृग की योनि में उत्पन्न हुए। वहां पर भी वे किसी व्याध के द्वारा मारे जाने पर गंगा नदी के किनारे पर हंस-रूप में जन्मे। कुछ समय के बाद अपने आयु-कर्म को समाप्त करके वे दोनों वाराणसी नगरी में भूदत्त नामक चांडाल के घर में उत्पन्न हुए। तब माता-पिता ने उन दोनों में से एक का नाम चित्त और दूसरे का नाम संभूति रखा। |
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 447 । चित्तसम्भूइज्जं तेरहमं अज्झयणं ।