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किसी-किसी प्रति में 'चरंति' के स्थान पर 'चरेयुः' क्रियापद दिया गया है जो कि केवल प्रथम प्रश्न से ही सम्बन्ध रखता है। तात्पर्य यह है कि ब्राह्मणों का प्रथम प्रश्न यही था 'कहं चरेम' हम कैसे . चलें और मुनि ने उत्तर दिया कि इस विधि से चलो ।
प्रथम प्रश्न का उत्तर देने के अनन्तर अब ब्राह्मणों के शेष प्रश्नों का उत्तर देते हुए मुनि कहते हैं, यथा
सुसंवुडा पंचहिं संवरेहिं, इह जीवियं अणवकंखमाणा । वोसट्टकाया सुइचत्तदेहा, महाजयं जयई जन्नसिढें ॥ ४२ ॥ सुसंवृताः पंचभिः संवरैः, इह जीवितमनवकांक्षन्तः ।
व्युत्सृष्टकायाः शुचि-त्यक्तदेहाः, महाजयं यजन्ते श्रेष्ठयज्ञम् ॥ ४२ ॥ पदार्थान्वयः—पंचहिं—पांच, संवरेहिं—संवरों से, सुसंवुडा—जो संवृत हैं, इह—इस जन्म में, जीवियं अपने जीवन की, अणवकंखमाणा—इच्छा न करने वाले, वोसट्टकाया—काया की ममता से रहित, वे, सुइ—पवित्र हैं, चत्तदेहा—त्यक्त देह हैं, महाजयं—कर्मों को जय करने वाले, जन्नसिटुं श्रेष्ठ यज्ञ को, जयई–जयन अर्थात् यज्ञ-कर्म करते हैं।
मलार्थ जो पांच संवरों से संवत हैं, जो इस जन्म में संयम-रहित जीवन की इच्छा न रखने वाले और परीषहों को सहन करने वाले हैं, जिन्होंने शरीर के ममत्व को त्याग दिया है वे ही पवित्र हैं और वे ही जीव कर्मों पर विजय प्राप्त करने वाले श्रेष्ठ यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं। ___टीका—मुनि कहते हैं कि जिन व्यक्तियों ने संवर द्वारा हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह रूप आस्रवों का निरोध किया है तथा जो इस जन्म में असंयत जीवन व्यतीत करने की इच्छा नहीं रखते. शीतोष्ण आदि परीषहों को सहन करने के लिए जिन्होंने शरीर के ममत्व का त्याग कर दिया है और जो कषायों के त्याग तथा व्रतों के पालन से पवित्र हो रहे हैं तथा देहादि के लिए किसी प्रकार का अभिमान न होने से जो त्यक्त-देह अर्थात् विदेह कहलाते हैं, वे ही व्यक्ति कर्म-रूप वैरियों का विनाश करने वाले परम श्रेष्ठ–आध्यात्मिक यज्ञ का अनुष्ठान करने वाले हैं। तात्पर्य यह है कि इन उक्त गुणों वाले सत्पुरुषों की भांति आप लोग भी उक्त प्रकार से ही यज्ञ का आरम्भ कीजिए।
प्रस्तुत गाथा में 'महाजयं' यह क्रिया-विशेषण है और 'जयइ' यहां पर वचन-व्यत्यय किया हुआ है—जैसे 'यजते' पद होने पर भी 'जयइ' इसी क्रियापद का सद्भाव है।
इस प्रकार जिन क्रियाओं द्वारा आरम्भ किया हुआ यज्ञ पापों का नाश तथा श्रेष्ठ व्यक्तियों के द्वारा आचरणीय है, उसका वर्णन श्रवण करने के अनन्तर अब ब्राह्मण लोग उक्त यज्ञ के उपकरणों के विषय में पूछते हैं, यथा
के ते जोई? के व ते जोइठाणे? का ते सुया? किं व ते कारिसंगं? एहा य ते कयरा सन्ति? भिक्खू! कयरेण होमेण हुणासि जोइं? ॥४३॥
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 440 | हरिएसिज्जं बारहं अज्झयणं