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मूलार्थ — हे महाभाग ! हम आपकी पूजा करते हैं, आपके शरीर का ऐसा कोई भी अंग नहीं है जो पूजा के योग्य न हो! आप नाना प्रकार के व्यंजनों सहित शुद्ध शालियों से निर्मित चावलों का भोजन कीजिए।
टीका - वे ब्राह्मण कहते हैं कि 'हे महाभाग ! हे पूज्य ! हम आपकी सर्व प्रकार से पूजा करते हैं, आपकी चरण-रेणु तथा आपके शरीर का अन्य कोई भी अवयव ऐसा नहीं है जो कि पूजने के योग्य न हो, अतः हमारी प्रार्थना को स्वीकार करते हुए आप शुद्ध शालि – धान्य विशेष से उत्पन्न हुए और इस यज्ञ मण्डप में बने हुए चावलों का भोजन कीजिए। यह चावल नाना प्रकार के दधि आदि पदार्थों से उपसंस्कृत हैं, अथवा नाना प्रकार के व्यंजनों - मसालों से सुसंस्कृत अर्थात् स्वादिष्ट बनाए गए हैं।
इस गाथा में भक्ति के अतिरेक का दिग्दर्शन कराया गया है तथा 'त्वां' के स्थान में 'ते' का प्रयोग भी 'सुप्' के व्यत्यय से प्राकृत नियम द्वारा बन जाता है ।
अब फिर इसी विषय का प्रतिपादन करते हैं
इमं च मे अत्थि पभूयमन्नं, तं भुंजसू अम्ह मणुगट्ठा । बाढं ति पडिच्छइ भत्तपाणं, मासस्स ऊ पारणए महप्पा ॥ ३५ ॥ इदं च मेऽस्ति प्रभूतमन्नं तद् भुंक्ष्वास्माकमनुग्रहार्थम् । बाढमिति प्रतीच्छति भक्तपानं, मासस्य तु पारणके महात्मा || ३५ ॥
पदार्थान्वयः—इमं—यह—–प्रत्यक्ष, च— पुनः, मेमेरे, पभूयं – प्रभूत, अन्नं – अन्नं, अस्थि है, तं—–वह, भुंजसू —–खाइये, अम्ह— हम पर, अणुग्गहट्ठा - अनुग्रह के लिए, बाढ—मुनि ने कहा कि मुझे स्वीकार है, ति — इस प्रकार कहकर, भत्तपाणं - भक्त और पान को, पडिच्छ — ग्रहण करता है, ऊ—–वितर्क में, मासस्स — मास के, पारण – पारणा में, महप्पा – महात्मा ।
मूलार्थ — सोमदेव ने कहा - 'हे मुने! मेरे यज्ञ मंडप में यह प्रचुर अन्न तैयार है, आप हम पर अनुग्रह करते हुए इसे स्वीकार करें।' मुनि ने कहा, मुझे 'स्वीकार है', इस प्रकार कहकर एक मा के पारणे के निमित्त उस महात्मा ने अन्न और जल ग्रहण कर लिए ।
टीका- - इस गाथा में सोमदेव की विनम्र प्रार्थना पर मुनि हरिकेशबल के भिक्षा ग्रहण करने का उल्लेख किया गया है, अर्थात् सोमदेव नाम के ब्राह्मण ने मुनि हरिकेशबल की स्तुति करने के बाद जब उससे नम्रता-पूर्वक भिक्षा ग्रहण करने की प्रार्थना की तब उक्त मुनि ने आहार लेने की अनुमति प्रदान करते हुए वहां से आहार लेकर अपने एक मास के उपवास का पारणा किया।
तात्पर्य यह है कि संयमशील मुनि की यह वृत्ति है कि यदि कोई व्यक्ति अज्ञानतावश प्रथम उसका तिरस्कार कर दे और फिर विनम्र होकर प्रार्थना करे तो फिर उसको मुनि निराश न करे, किन्तु वहां से अपने योग्य आहार आदि लेकर उसको सफल - मनोरथ बनाने का ही प्रयत्न करे । इसी नियम
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 434
/ हरिएसिज्जं बारहं अज्झयणं