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मुनि के इस प्रकार के शान्त वचनों को सुनकर वे अध्यापक लोग फिर उसी की स्तुति करने लगे, यथा
.अत्थं च धम्मं च वियाणमाणा, तुब्भे न वि कुप्पह भूइपन्ना । तुमं तु पाए सरणं उवेमो, समागया सव्वजणेण अम्हे ॥ ३३ ॥ अर्थञ्च धर्मञ्च विजानन्तः, यूयं नापि कुप्यथ भूतिप्रज्ञाः !
युष्माकं तु पादौ शरणमुपेमः समागताः सर्वजनेन वयम् || ३३ ||
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पदार्थान्वयः—–— अत्थं—अर्थ के, च— और, धम्मं - धर्म के, च – समुच्चय अर्थ में, वियाणमाणा—जानने वाले हैं, तुम्मे – आप, न वि – नहीं, कुप्पह—कोप करने वाले हैं, भूइपन्ना — रक्षा करने की बुद्धि वाले, तु निश्चय ही, तुब्भं-आपके, पाए― चरणों का, सरणं—शरण, उवेमो—ग्रहण करते हैं, अम्हे - हम लोग, समागया—इकट्ठे मिलकर, सव्वजणेण - सर्वजनों के साथ ।
मूलार्थ - हे भगवन्! आप अर्थ और धर्म के जानने वाले हैं तथा कदाचित् भी क्रुद्ध होने वाले नहीं हैं, क्योंकि आपकी बुद्धि सदा रक्षा करने वाली है, अतः हम सब लोग आपके चरणों की शरण ग्रहण करते हैं, अर्थात् आपकी शरण में आए हैं।
टीका - अध्यापक लोग मिलकर मुनि की सेवा में उपस्थित होते हुए उनसे फिर प्रार्थना करते हैं— 'हे भगवन्! आप समस्त शास्त्रों के अर्थ. अर्थात् रहस्य के जानकार तथा दशविध यति-धर्म के पूर्ण ज्ञाता हैं, इसलिए आप में अणुमात्र भी क्रोध नहीं है । आप भूतिप्रज्ञ अर्थात् हर एक जीव की मंगल कामना, वृद्धि और रक्षा करने वाले हैं, अतः हम सब मिलकर आपकी शरण में आए हैं। यहां पर 'भूति' शब्द से मंगल, वृद्धि और रक्षा ये तीन अर्थ अभिप्रेत हैं । तात्पर्य यह है कि आप सबका कल्याण चाहते हैं, किसी का विनाश नहीं चाहते, अतएव आप के हृदय में सबके लिए रक्षा की कामना है।
अब फिर इसी विषय में कहते हैं
अच्चे ते महाभाग !, न ते किंचि न अच्चिमो |
भुंजाहि सालिमं कूरं, नाणावंजणसंजुयं ॥ ३४ ॥ अर्चयामस्त्वां महाभाग ! न तव किंचिन्नार्चयामः |
भुंक्ष्व शालिमयं कूरं, नानाव्यञ्जनसंयुतम् || ३४ || पदार्थान्वयः——महाभाग— हे महाभाग !, ते—– आपकी, अच्चेमु— हम पूजा करते हैं, तेकिंचि— कोई भी-अंग ऐसा, न— नहीं है जो, न अच्चिमो — पूजने योग्य न हो, भुंजाहिभोजन कीजिए, सालिमं— तण्डुल, कूरं – विशिष्ट ओदन – पकाया हुआ भात, नाणावंजण – नाना प्रकार के व्यंजनों से, संजुयं — संयुक्त ।
आपका,
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 433 / हरिएसिज्जं बारहं अज्झयणं