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________________ वितीर्यते खाद्यते भुज्यते, चान्नं प्रभूतं भवतामेतत् । जानीत मां याचनजीविनमिति, शेषावशेषं लभतां तपस्वी ॥ १० ॥ पदार्थान्वयः–वियरिज्जइ — वितीर्ण किया जाता है, खज्जइ – खाया जाता है, भुज्जई - भोगा जाता है, अन्नं- अन्न, पभूयं— अधिक, भवयाणं – आपके, एयं - यह प्रत्यक्ष है, जाणाहि —तुम जानते हो, मे—मेरा, जायण — याचना से, जीविणु — जीवन है, त्ति — इस प्रकार, सेस — शेष अवसेसं - अवशेष, लभऊ— प्राप्त करे, तवस्सी – तपस्वी । मूलार्थ — हे ब्राह्मणों! यह सामने रखा हुआ प्रभूत अन्न तुम्हारे पास है— इसमें से वितीर्ण किया जाता है, खाया जाता है और भोगा जाता है, तुम जानते हो कि मेरा जीवन केवल याचना पर ही अवलम्बित है, अतः तपस्वी को शेष व अवशेष अन्न मिलना ही चाहिए । टीका - प्रस्तुत गाथा के अर्थ का भली-भांति मनन करने से प्रतीत होता है कि उस समय जो यज्ञ किए जाते थे उनमें अन्नादि खाद्य पदार्थों का ही वितरण, भोजन और हवन किया जाता था, अर्थात् इसी निमित्त से यज्ञादि का समारम्भ होता था । कहने का तात्पर्य यह है कि पशु का वध अथवा मांस का हवन करना इत्यादि आर्यजन - विगर्हित प्रवृत्ति को उस समय में भी कोई स्थान प्राप्त नहीं था, अन्यथा एक जैन भिक्षु का यज्ञ मण्डप में आकर भिक्षा का मांगना संगत नहीं हो सकता, क्योंकि जहां पर सात्त्विक आहार की उपलब्धि नहीं हो सकती वहां पर जैन मुनि का भिक्षार्थ उपस्थित होना कुछ भी अर्थ नहीं रखता । • इससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि उस समय हिंसक यज्ञों के स्थान में सात्त्विक यज्ञों की प्रवृत्ति चल पड़ी थी, इसीलिए ब्राह्मणों के द्वारा आरम्भ किए जाने वाले यज्ञ में अन्नादि के वितरण और भोजन आदि का वर्णन उपलब्ध होता है । यक्ष कहता है कि हे ब्राह्मणों! आपके इस यज्ञ में दीन- अनाथों को अन्नादि दिए जाते हैं । घृत- खंडादि पदार्थों का भोजन किया जाता है, यहां पर प्रभूत अन्नादि पदार्थ विद्यमान हैं तथा आप लोग यह बात भली प्रकार जानते हैं कि मैं भिक्षु हूं और मेरा जीवन केवल भिक्षावृत्ति पर ही निर्भर है । इसलिए आपके पास जो शेष अथवा शेष में भी जो शेष है— मुझे तपस्वी समझ कर वह आहार दे दो, क्योंकि आपका यह यज्ञ सब जीवों की प्रीति को सम्पादन करने वाला है, अतः मुझे भी भिक्षा दें । मुनि के उक्त भाषण को सुनकर उन ब्राह्मणों ने जो उत्तर दिया अब उसी का वर्णन करते हैं - . उवक्खडं भोयण माहणाणं, अत्तट्ठियं सिद्धमिहेगपक्खं । न ऊ वयं एरिसमन्नपाणं, दाहामु तुज्झं किमिहं ठिओऽसि ? ॥ ११ ॥ उपस्कृतं - भोजनं ब्राह्मणानां, आत्मार्थिकं सिद्धमिहैकपक्षम् । न तु वयमीदृशमन्नपानं, तुभ्यं दास्यामः किमिह स्थितोऽसि ? ॥ ११ ॥ पदार्थान्वयः—–—उवक्खडं—– संस्कार किया हुआ, अच्छी तरह पकाया हुआ, भोयण - भोजन, श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 415 / हरिएसिज्जं बारहं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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