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समणो अहं संजओ बम्भयारी, विरओ धणपयणपरिग्गहाओ। . परप्पवित्तस्स उ भिक्खकाले, अन्नस्स अट्ठा इहमागओ मि ॥ ६ ॥
श्रमणोऽहं संयतो ब्रह्मचारी, विरतो धन-पचन-परिग्रहात् ।
परप्रवृत्तस्य तु भिक्षाकाले, अन्नार्थमिहाऽऽगतोऽस्मि || ६ || पदार्थान्वयः अहं—मैं, समणो श्रमण हूं, संजओ-संयत-और, बंभयारी-ब्रह्मचारी हूं, विरओ-निवृत्त हो गया हूं, धण-धन से, पयण–अन्न के पकाने से, परिग्गहाओ—परिग्रह से, पर—और के वास्ते, पवित्तस्स—जो बनाया गया है, उ–निश्चय ही, भिक्खकाले भिक्षाकाल में, अन्नस्स–अन्न के, अट्ठा—वास्ते, इहं—इस यज्ञमंडप में, आगओ मि—मैं आया हूं।
मूलार्थ—यक्ष ने कहा—हे ब्राह्मणों! मैं श्रमण हूं, संयत हूं, ब्रह्मचारी हूं तथा धन के संचय करने, अन्न के पकाने और परिग्रह के रखने से मैं सर्वथा निवृत्त हो गया हूं और पर के लिए जिस आहार को अर्थात् अन्न को बनाया गया है उसमें से भिक्षा के समय पर आहार लेने जाता हूं, अतः इस यज्ञशाला में भी मैं भिक्षा के लिए उपस्थित हुआ हूं।
___टीका—इस गाथा में साधु के शरीर में प्रविष्ट होकर यक्षराज ने ब्राह्मणों के प्रश्न का जो उत्तर दिया है उसका दिग्दर्शन कराया गया है। ब्राह्मणों के दो प्रश्न थे—पहला, तू कौन है, और दूसरा, तू किसलिए यहां पर आया है। इनमें से पहले प्रश्न के उत्तर में उसने कहा कि मैं श्रमण हूं अर्थात् तप के अनुष्ठान में निरन्तर श्रम करने से मैं श्रमण कहलाता हूं तथा सावद्य प्रवृत्ति से रहित होने के कारण संयत कहलाता हूं, मैथुन के सर्वथा त्याग से ब्रह्मचारी हूं, एवं धन के त्याग से अकिंचन हूं। यह तो उनके प्रथम प्रश्न का उत्तर है। __ दूसरे प्रश्न के उत्तर में वह यक्ष कहता है कि मैं स्वयं अन्नादि का पाक नहीं करता, अतः जो अन्न किसी दसरे के निमित्त से तैयार किया गया हो, उसी से मैं भिक्षा के समय आहार लेने के लिए जाता हूं, यही श्रमण का आचार है। इसीलिए इस यज्ञमण्डप में मैं भिक्षा के लिए आया हूं। इस प्रकार उन ब्राह्मणों के दोनों प्रश्नों का यथार्थ उत्तर उस यक्ष ने दे दिया। येक्ष के उत्तर में दो बातों की विशेषता देखने में आती है—पहली यह कि साधु-वृत्ति के यथार्थ स्वरूप का संक्षेप से वर्णन करना और ब्राह्मणों के असभ्यता भरे प्रश्नों का सभ्य भाषा में उत्तर देना। .
एक बात जो उसके उत्तर में सबसे अधिक आकर्षण पैदा करने वाली है वह यह है कि उसने अपने आपको अतिथि बताने के साथ-साथ अपनी गुण-गरिमा का भी बड़ी सुन्दरता से परिचय दे दिया
है।
इसके अनन्तर उस यक्ष ने फिर कहा कि
वियरिज्जइ खज्जइ भुज्जई, अन्नं पभूयं भवयाणमेयं । जाणाहि मे जायणजीविणु त्ति, सेसावसेसं लभऊ तवस्सी ॥ १०॥ -
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श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 414 | हरिएसिज्जं बारहं अज्झयणं
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