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कारणों से तथा मुनि ज्ञानचन्द्र के रोगग्रस्त हो जाने से उस समय मैं इस कार्य को प्रारम्भ न कर सका। वि०सं० १६७२ में मुनि ज्ञानचन्द का तो बरनाला मंडी में स्वर्गवास हो गया। मैंने अनुयोग द्वार सूत्र का भाषान्तर सम्पूर्ण करने के बाद, फिर इस कार्य को हाथ में लेने का विचार किया, परन्तु इतने में इन्दौर निवासी सेठ केसरीचन्द जी भण्डारी की ओर से अर्द्धमागधीकोष के लिए श्री भगवतीव्याख्या-प्रज्ञप्ति, ज्ञाता-धर्म-कथाङ्ग, दशवैकालिक आदि सूत्रों में से शब्दों के संग्रहार्थ एक विज्ञप्ति मिली और उनकी ओर से कान्फ्रेंस प्रकाशन के कार्य-कर्ता लाला दुर्गाप्रसाद जी भी आए। उक्त कार्य को भी आवश्यक और उपयोगी समझते हुए उनकी विज्ञप्ति के अनुसार प्रथम अर्धमागधी-कोष के
र्य का आरम्भ किया गया जो कि कछ समय के बाद सम्पर्ण हो गया। अर्द्धमागधीकोष के लिए पर्याप्त शब्दों का संग्रह कार्य समाप्त करने के बाद मुनि ज्ञानचन्द्र की ओर से हुई प्रेरणा का ध्यान आने से फिर इस कार्य का आरम्भ किया गया, अर्थात् उत्तराध्ययन-सूत्र की हिन्दी भाषा में व्याख्या लिखनी आरम्भ कर दी। परन्तु प्राकृत भाषा से अधिक परिचय न रखने वाले संस्कृतज्ञ विद्वानों को भी इसके पदार्थों का यथेष्ट परिचय मिल सके, एतदर्थ प्राकृत मूलपाठ के साथ उसकी संस्कृत छाया भी दे दी गई है। यहां पर इतना स्मरण रहे कि मूल प्राकृत पाठ की संस्कृत छाया में जहां कहीं पर भी पाठकों को छन्दोभङ्ग प्रतीत हो, वहां पर वे इस बात का भी ध्यान रखें कि प्राकृत पद्य के शब्दानुवाद में यह त्रुटि अनिवार्य है, परन्तु इससे अर्थ-बोध में किसी प्रकार की बाधा उपस्थित नहीं होगी।
यद्यपि दुर्भाग्यवश इस भाषा-टीका के लिखने में विघ्न-बाधाएं तो बहुत उपस्थित हुई, परन्तु जहां तक हो सका, वहां तक अशांति के कारणों की उपेक्षा करते हुए अपने ध्यान को इस कार्य की ओर ही संलग्न रखा और यह प्रस्तुत टीका सानन्द सम्पूर्ण हो गई।
नामकरण
अपने स्वर्गीय शिष्य मुनि ज्ञानचन्द्र की प्रेरणा से ही आत्मा में इस टीका को लिखने के संस्कार उत्पन्न हुए थे। अतः इस टीका का नाम “आत्म-ज्ञान-प्रकाशिका'' रखना ही उचित प्रतीत हुआ, ताकि नामकरण के साथ प्रेरक की स्मृति भी बनी रहे। जहां तक मुझसे बन पड़ा है, वहां तक इसको सर्वोपयोगी बनाने की ओर ही अधिक ध्यान रखा गया है और भाषा भी सरल एवं सुबोध रखी गई है। इसमें सन्देह नहीं कि जो सरलता मूल भाषा में होती है उतनी अनुवाद में नहीं लाई जा सकती, परन्तु फिर भी जहां तक हो सका है वहां तक मूल के आशय को सरलतापूर्वक स्फुट करने का यथेष्ट प्रयत्न किया गया है। हिन्दी टीका के लिखने में सहायक ग्रन्थ
इस हिन्दी टीका के लिखने में जिन-जिन ग्रन्थों की सहायता ली गई है, उनका निर्देश कर देना भी उचित प्रतीत होता है। ___ प्रस्तुत टीका के लिखते समय खरतर गच्छाधिराज श्री जिनभद्र सूरि के शिष्य श्री कमल
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 38 / प्रस्तावना