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________________ भावार्थ यह है कि कर्मों की सेना पर विजय प्राप्त करने के लिए इस प्रकार के धनुषधारी वीर आत्मा ही समर्थ हो सकते हैं। एयमठें निसामित्ता, उ-कारण-चोइओ । तओ नमिं रायरिसिं, देविन्दो इणमब्बवी ॥ २३ ॥ एनमर्थं निशम्य, हेतु-कारण-नोदितः । ततो नर्म राजर्षि, देवेन्द्र इदमब्रवीत् || २३ ॥ (शब्दार्थ पूर्ववत्) मूलार्थ तदनन्तर इस पूर्वोक्त अर्थ को सुनकर राजर्षि नमि के प्रति इन्द्र ने इस प्रकार कहा। टीका—इस गाथा का अर्थ तो स्पष्ट ही है, किन्तु विशेष रूप से इतना और समझ लेना चाहिए कि राजर्षि नमि ने इन्द्र के प्रश्न का उत्तर देते हुए उसको यह समझाने का प्रयत्न किया है कि जो पुरुष जिस आश्रम में प्रविष्ट हो चुका है उसको उसी आश्रम के नियमों का अनुसरण करना चाहिए.। यही आत्मा के विकास की पद्धति है। मैंने गृहस्थाश्रम का परित्याग करके अब संन्यास आश्रम में प्रवेश किया है, इसलिए संन्यासी अर्थात् भिक्षु के लिए आप्त पुरुषों ने जिन नियमों का विधान किया है मुझे उन्हीं का अनुसरण करना चाहिए, इसी धारणा से आत्मिक गुणों का विकास हो सकता है। आपने मिथिला की रक्षा के निमित्त कोट आदि के निर्माण करने का जो मुझ से प्रस्ताव किया है वह समुचित नहीं है, क्योंकि मेरा अब इन बातों से कोई सम्बन्ध नहीं रहा, मैं तो संसार को त्याग चुका हूं, अतः इस प्रकार के सुझाव तो आपको किसी गृहस्थ क्षत्रिय को देने चाहिएं। यहां पर आत्म-रमणता या आत्म-समाधि के अतिरिक्त अन्य किसी विचार की प्रवृत्ति नहीं है, इसलिए आपका यह सम्भाषण युक्ति-युक्त प्रतीत नहीं होता। - राजर्षि नमि के इस प्रकार के साधु-जीवन के अनुरूप उत्तर को सुन करके भी इन्द्र ने अपना फिर वही राग आलापना आरम्भ किया, अर्थात् फिर भी वह उनको प्रासाद आदि के निर्माण करने की ही प्रेरणा देता रहा, यह विस्मय की बात है। परन्तु इसमें जो रहस्य है वह भी स्पष्ट है। वह यह कि इन्द्र राजर्षि नमि को बार-बार परीक्षा की कसौटी पर परखना चाहता है कि देखें ये कितने दृढ़ विचारों वाले हैं? इन्द्र का पुनर्प्रश्न पासाए कारइत्ता णं, वद्धमाणगिहाणि य । वालग्गपोइयाओ य, तओ गच्छसि खत्तिया! ॥ २४ ॥ प्रासादान्कारयित्वा खलु वर्धमानगृहाणि च । __ बालाग्रपोतिकाश्च, ततो गच्छ क्षत्रिय! || २४ ॥ पदार्थान्वयः—पासाए—प्रासादों को, कारइत्ताणं—करवा करके, वद्धमाणवर्धमान, श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 320 / णवमं नमिपवज्जाणामज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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