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________________ को बांधकर सदा धृतिरूप केतन करके फिर उस धनुष को सत्य से बांधे। टीका—इस गाथा में धनुष की द्रव्य और भाव से उपपत्ति की गई है, द्रव्य-धनुष तो संयम-शील धर्मात्मा पुरुषों के द्वारा बांधने योग्य नहीं होता है, वे तो भाव-धनुष को ही अपने पास रखते हैं। उस भाव-धनुष का परिचय इस प्रकार है। मुमुक्षु पुरुष संयम-पराक्रम का धनुष बनाकर उसमें ईर्या-समिति आदि पांचों समितियों की जीवा अर्थात् डोरी बांधे तथा धर्म-मार्ग में निरन्तर धारण किए जाने योग्य धैर्य का केतन बनाए। उस धनुष को स्नायु स्थान से सत्य की रस्सी द्वारा बान्धना चाहिए, अर्थात् सत्य की डोरी से उसको बान्धना चाहिए । सारांश यह है कि संयमशील पुरुषों का यह भावरूप धनुष है जिससे कि संयमी साधक अपनी आत्मा की रक्षा करता हुआ राग-द्वेषादि शत्रुओं से युद्ध करने में सफलता प्राप्त करता है। ___इस गाथा के भाव रूप धनुष की रचना का विचार करते हुए यह भी स्पष्ट हो जाता है कि पूर्वकाल में इस देश में धनुर्विद्या का अधिकाधिक प्रचार था, क्योंकि द्रव्य को ही मुख्य रखकर उसकी भाव में कल्पना की जाती है, जैसा कि ऊपर वर्णन किया गया है। ___ अब शास्त्रकार उक्त विधि से तैयार किए गए धनुष के उपयोग-सम्बन्धी विषय का वर्णन करते हैं तव . 'नारायजुत्तेणं, भेत्तुणं कम्मकंचुयं । - मणी विगयसंगामो, भवाओ परिमुच्चए ॥ २२ ॥ तपोनारांचयुक्तेन, भित्त्वा कर्मकंचुकम् । मुनिर्विगत-संग्रामः, भवात्परिमुच्यते ॥ २२ ॥ ___ पदार्थान्वयः–तव–छ. प्रकार का आभ्यन्तर तप रूप, नाराय—बाण, जुत्तेणं—युक्त, कम्म कंचुयं—कर्म रूप कंचुक को, भेत्तूणं-भेदन करके, मुणी–साधु, विगयसंगामो—बाह्य संग्राम रहित होकर, भवाओ-संसार से, परिमुच्चए—सर्वथा मुक्त हो जाता है। - मूलार्थ तप रूप बाण से युक्त करके उस संयम-रूप धनुष के द्वारा कर्म-कंचुक का भेदन करके फिर वह मुनि संग्राम से रहित होकर इस संसार से सर्वथा मुक्त हो जाता है। टीका—जब संयम-पराक्रम रूप धनुष का निर्माण कर लिया गया, तब उस पर बाण की आवश्यकता हुई, इसलिए छः प्रकार के आभ्यन्तर तप रूप बाण को उस पर चढ़ाकर उसके द्वारा कर्म रूप कंचुक अर्थात् कवच का भेदन करके विगत-संग्राम होने पर विचारशील मुनि इस संसार से सर्वथा छूट जाता है। .. नानावन ★ १. धनुष के मध्यभाग में उसके पकड़ने के लिए जो काष्ठमय मुष्टि लगी हुई होती है उसको 'केतन' कहते हैं। 'केतनं श्रृंगमयधनुर्मध्येकाष्ठमयमुष्ट्यात्मकम्' इति वृत्तिकारः । श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 319 / णवमं नमिपवज्जाणामज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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