________________
द्वारा इस शरीर के अन्त का निश्चय करके प्रत्याख्यान के द्वारा अर्थात् अनशन के द्वारा कर्म - मल को दूर करने का प्रयत्न करे ।
टीका—संयमशील साधु का यह बड़ा ही उत्तरदायित्व पूर्ण आचार है कि वह मूल और उत्तरगुणरूप संयम में लेशमात्र भी दोष न लगने दे। यदि उनमें यत्किंचित् किसी दोष के लग जाने की आशंका हो जाए तो उसको बन्धनरूप समझकर, अर्थात् उक्त दोष को संसार के जन्म-मरण की वृद्धि का हेतु समझता हुआ भारण्ड पक्षी की तरह उससे अपने आपको पूर्णतया परिशंकित — पूर्णरूप से सावधान रखने का प्रयत्न करे । तात्पर्य यह है कि साधक क्षणमात्र का भी प्रमाद न करे। जब तक इस शरीर से ज्ञान, दर्शन और चारित्र आदि सद्गुणों का लाभ होता रहे तब तक तो निर्दोष आहार आदि के द्वारा इसकी रक्षा और पोषण करता रहे और जब अपने परिवर्धित ज्ञान के द्वारा इस शरीर का अवसान निकट जान पड़े, तब बचे हुए कर्म - मल को अनशन व्रत के द्वारा दूर करने का स्तुत्यं प्रयास करे ।
अभिप्राय यह है कि जब यह प्रतीत हो जाए कि अब बुढ़ापा आ गया है, शरीर का अस्थि-पंजर अब वृद्धावस्था के आक्रमण से जर्जरित होने लगा है, भयंकर रोग भी आतंक मचाने लगे हैं तथा आयु-कर्म की सीमा भी अब बहुत ही निकट है, जब ये सभी कारण इस समय उपस्थित हो रहें हैं और जिनका फल इस शरीर का अवश्यंभावी अन्त है तथा विशिष्ट ज्ञान से भी जान लिया है कि अब इसका अन्त बहुत समीप है, तब तो मेरे लिए यही उचित है कि मैं इससे अन्त में भी कुछ और लाभ उठा लूं। ऐसा विचार करके अनशन व्रत के द्वारा इसके कर्म-फल का विध्वंस करने का यत्न करे ।
इस कथन का कहीं ऐसा विपरीत आशय न समझ लेना चाहिए कि शास्त्रकारों ने जान-बूझकर मरने की आज्ञा दी है। नहीं, शास्त्रकारों का यह आशय कदापि नहीं है। इसी अभिप्राय से उक्त गाथा में ‘परिण्णा' परिज्ञा शब्द दिया है, जिसका तात्पर्य यह है कि जब साधक को पूर्णरूप से यह ज्ञात हो जाए कि यह शरीर अब नहीं रहेगा, इसका वियोग अब अवश्यंभावी है, उस समय संयमशील साधक को उचित है कि वह भक्त - प्रत्याख्यान आदि अनशन व्रतों के द्वारा अपने कर्म - मल को दूर करने का प्रयास करे ।
शास्त्रकारों का यही अभिप्राय है जो कि ऊपर दर्शाया गया है, किन्तु किसी-न-किसी प्रकार से आत्म-घात या आत्म-हत्या कर लो यह उनका आशय कभी नहीं समझना चाहिए ।
तात्पर्य यह है कि हर एक वस्तु के स्वरूप को प्रथम अच्छी तरह से समझ लेने के बाद उसके प्रत्याख्यान का विचार करना चाहिए, अन्यथा नहीं ।
अब उक्त विषय के साथ ही मोक्ष के उपाय का वर्णन किया जाता है—
छन्दं निरोहेण उवेइ मोक्खं, आसे जहा सिक्खिय- वम्मधारी । पुव्वाइं वासाइं चरेऽप्पमत्तो, तम्हा मुणी खिप्पमुवेइ मोक्खं ॥ ८ ॥
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 188 / चउत्थं असंखयं अज्झयणं