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व्यवहार-नय का अवलम्बन किया गया है। वास्तव में तो ज्ञान की प्राप्ति कर्मों के क्षय अथवा क्षयोपशम से ही मानी गई है। जो धर्म-ज्ञान को आवृत करने वाले अर्थात् ढक देने वाले हैं, उन कर्मों के अनुष्ठान से अज्ञान की वृद्धि और उनके क्षय अथवा क्षयोपशम से ज्ञान का प्रकाश होता है। जैसे सूर्य का प्रकाश बादलों के आवरण से ढक जाता है और उनके हट जाने से पुनः प्रकाशित हो जाता है, यही दशा अज्ञान और ज्ञान की है, परन्तु यह कथन भी औपचारिकनय से ही संगत हो सकता है। वास्तव में कर्मों का फल ज्ञान नहीं है। कर्मों का फल-सादि सान्त होता है और ज्ञान सादि सान्त नहीं है, क्योंकि आत्मा ज्ञान रूप ही है, इसलिए ज्ञान अनादि-अनन्त है।
यहां पर 'से' शब्द का अर्थ 'अथ' है और वह 'उपन्यास' के अर्थ में आया हुआ है तथा दूसरे अर्थ में 'नाभिजानामि' शब्द में ना+अभिजानामि—ऐसी संधि करके 'नृ' शब्द से बने हुए मनुष्यवाची 'ना' सुबन्त का भी ग्रहण किया जा सकता है, तब इसका अर्थ यह होगा कि मैं—ना–पुरुष के विषय में जानता हूं। दूसरा अर्थ है 'नाभिजानामि', 'न' अव्यय का ग्रहण करके 'नाभिजानामि' का 'मैं नहीं जानता, इन दोनों ही अर्थों को ग्रहण करना इस गाथा की शास्त्र-सम्मत व्याख्या है। अब फिर इसी विषय को स्पष्ट करते हुए शास्त्रकार कहते हैं
अह पच्छा उइज्जति, कम्माऽणाणफला कडा । एवमस्सासि अप्पाणं, नच्चा कम्मविवागयं ॥ ४१ ॥
अथ पश्चादुदेष्यन्ति, कर्माण्यज्ञानफलानि कृतानि |
एवमाश्वासयात्मानं, ज्ञात्वा कर्मविपाककम् ॥ ४१॥ पदार्थान्वयः—अह–अथ, पच्छा—पश्चात्, उइज्जंति-उदय होंगे, कम्मा—कर्म, अणाणफला-अज्ञानफल रूप, कडा—किए हुए, एवं इस प्रकार, अस्सासि—आश्वासन दे, अप्पाणं अपने आप को, नच्चा—जान करके, कम्मविवागयं—कर्मों के विपाक को । ____ मूलार्थ ज्ञान अथवा अज्ञान रूप फल को देने वाले मेरे किए हुए वे कर्म उदय में आएंगे ही, इस प्रकार कर्मों के विपाक को जान करके अपनी आत्मा को आश्वासन दे। .
टीका-प्रज्ञा-विकल साधु को अपनी अज्ञानता के विषय में इस प्रकार का विचार करना चाहिए कि-ज्ञान-प्रतिबन्धक जिन अशुभ कर्मों का मैंने संचय किया है वे उत्तरकाल में अज्ञानफल अवश्य देंगे। मैंने पूर्व जन्म में ऐसे ही अशुभ कर्म किए थे जिनसे कि मुझे इस जन्म में ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ, इसलिए. अब मुझे किसी प्रकार का शोक नहीं करना चाहिए, किन्तु उन अशुभ कर्मों को दूर करने का ही अब यत्न करना चाहिए, जिससे कि भविष्य में मुझे ज्ञान की प्राप्ति हो सके।
___ इसी तरह प्रतिभाशाली मुनि को भी अपने ज्ञानातिरेक का गर्व न करते हुए इस प्रकार का विचार करना चाहिए कि जो कर्म किए जाते हैं उनका फल अवश्यमेव भोगना होता है.। मैंने पूर्व जन्म में ज्ञान की वृद्धि करने वाले शुभ कर्मों का अनुष्ठान किया है जिनका कि ज्ञान-प्राप्ति रूप फल मुझे मिला है, इसमें अहंकार करने की कोई आवश्यकता नहीं है, यह तो पूर्व जन्म के कर्मों का ही फल है इत्यादि ।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 149 / दुइअं परीसहज्झयणं