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________________ न मे निवारणमस्ति छविस्त्राणं न विद्यते । अहं तु अग्निं सेवे, इति भिक्षुर्न चिन्तयेत् || ७ || पदार्थान्वयः -- नहीं, मे— मेरे लिए, निवारणं — कोई शीतनिवारक स्थान, अस्थि- है, छवित्ताणं— शरीर-रक्षक कम्बल आदि भी, न विज्जइ — नहीं है, अहं मैं, तु — फिर, अग्गिं – अग्नि , सेवामि – सेवन करूं, इइ – इस प्रकार, भिक्खू – साधु, न चिंतए — चिंतन न करे । का, मूलार्थ — मेरे पास शीत से रक्षा करने वाला स्थान नहीं है और शीत से शरीर की रक्षा करने योग्य वस्त्र भी नहीं हैं, तो फिर मैं अग्नि का ही सेवन करूं, इस प्रकार का चिन्तन भिक्षु कदापि न करे । टीका - इस गाथा में शास्त्रकार साधु के लिए अग्नि के तापने का निषेध करते हैं । यदि साधु के पास शीत-निवारण की कोई सामग्री — स्थान व वस्त्र आदि भी न हों तब भी साधु को अग्नि- ताप आदि से शीत की निवृत्ति करना उचित नहीं है । साधु को सचित्त पदार्थ के स्पर्श करने का सर्वथा निषेध है और अग्नि भी शास्त्रीय सिद्धान्त के अनुसार सचित्त वस्तु है, क्योंकि वह अग्नि सचित्त - सजीव अर्थात् अग्निकाय के जीवों का ही एक पिंडमात्र है । इसलिए किसी शीतनिवारक स्थान के न होने पर और शीत रक्षा करने वाले कम्बल आदि वस्त्र का संयोग न होने पर भी साधु अग्नि का स्पर्श न करे और शीत की उस असह्य वेदना को शान्ति - पूर्वक समता रखकर सहन कर ले, किन्तु शीत से परिभूत होकर कोई अग्नि सेवनादि ऐसी क्रिया आचरण में न लाए जिसका कि साधु के लिए शास्त्रकारों ने सर्वथा निषेध किया है। शीत - परीषह को सहन करते हुए साधु नारकी जीवों की 'दुखमयी यातनाओं और पशुओं की सदैव काल की नग्नता का ध्यान करता हुआ अपने आपको बलवान् बनाने का प्रयत्न करे, यही इस गाथा का सार है। (४) उष्णपरीषह— उसिणं परियावेणं, परिदाहेण तज्जिए । घिंसु वा परियावेणं, सायं नो परिदेव ॥ ८ ॥ उष्णपरितापेन, परिदाहेन तर्जितः I ग्रीष्मे वा परितापेन, सातं नो परिदेवेत ॥ ८ ॥ पदार्थान्वयः—उसिणं—–गर्मी के, परियावेणं—परिताप से, परिदाहेण – सर्व प्रकार के दाह से, तज्जिए— पीड़ित हुआ, घिंसु - ग्रीष्म ऋतु के, वा — अथवा शरत् आदि के, परियावेणं - परिताप से पीड़ित हुआ, सायं— साता, नो परिदेव - कब प्राप्त होगी, इत्यादि विचार न करे । मूलार्थ -- गर्मी के परिताप के कारण सब प्रकार के दाह से पीड़ित हुआ अथवा ग्रीष्म और शरद ऋतु आदि के कष्ट से खेद को प्राप्त हुआ साधु साता के लिए आर्त्त ध्यान न करे, अर्थात् मुझे कब शान्ति प्राप्त होगी, ऐसा विचार न करे । श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 117 / दुइअं परीसहज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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