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________________ भूख और प्यास के कारण जिस साधु का शरीर अतिकृश हो गया हो, उसको शीत की बाधा विशेष रूप से उत्पन्न हो जाती है, अतः आगामी गाथा में शीत- परीषह का वर्णन किया जाता है । (३) शीत परीषह चरंतं विरयं लूहं, सीयं फुसइ एगया । · नाइवेलं मुणी गच्छे, सोच्चा णं जिणसासणं || ६ || चरन्तं विरतं रूक्षं, शीतं स्पृशति एकदा | नातिवेलं मुनिर्गच्छेत्, श्रुत्वा जिनशासनम् || ६ || पदार्थान्वयः —चरंतं—– ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए, विरयं - सावध कर्मों से निवृत्त, लूहरूक्ष वृत्ति वाले भिक्षु को, सीयं- शीत, एगया – किसी समय, फुसइ — स्पर्श करता है, अइवेलं – स्वाध्याय के समय का अतिक्रमण करके, मुणी – साधु, न गच्छे— स्थानान्तर में न जाए, सोच्चा - सुन करके, — वाक्यालंकार में आता है, जिणसासणं - जिन भगवान के शासन को । . . मूलार्थ – सावद्य प्रवृत्ति के त्यागी और रूक्ष वृत्ति वाले साधु को ग्रामानुग्राम विचरते हुए यदि कहीं पर शीत का स्पर्श हो- शीत का कष्ट उत्पन्न हो जाए, तो वह स्वाध्याय के समय का उल्लंघन करके स्थानान्तर में जहां पर जाने से शीत की बाधा न हो सके जाने का प्रयत्न न करे, किन्तु जिनशासन - वीतरागदेव की शिक्षा को सुनकर शीत के परीषह को सहन ही करे । टीका - धर्मोपदेश अथवा संयम - निर्वाहार्थ क्रमशः ग्रामों में विचरते हुए अथवा मोक्ष - मार्ग पर चलते हुए साधु को कहीं-न-कहीं पर शीत की बाधा का उपस्थित होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि अग्नि आदि को जलाकर तापने अथवा जलती हुई अग्नि के पास जाकर तापने का तो वीतराग देव के संयम-प्रधान धर्म के मार्ग पर चलने वाले साधु के लिए सर्वथा निषेध है, अतः यदि किसी स्थान पर साधु के लिए शीत की बाधा उपस्थित हो जाए तो साधु अपने स्वाध्याय समय की अवहेलना करके शीत की निवृत्ति के लिए किसी अन्य स्थान में जाने की कोशिश न करे, किन्तु भगवान की साधु-धर्म सम्बन्धी शिक्षा का विचार करता हुआ उस असह्य शीत- परीषह के सहन करने में ही अपने दृढ़तर संयम का परिचय दे । यहां पर 'रूक्ष' शब्द का सम्बन्ध स्निग्ध भोजन और तैलाभ्यंग दोनों के त्याग है। तब 'रूक्ष वृत्ति वाला' इस वाक्य का अर्थ हुआ कि जो स्निग्ध भोजन का त्यागी हो और तैल आदि के मर्दन का जिसने त्याग किया हो ऐसी वृत्ति वाला साधु । अब फिर इसी विषय में कहा जाता है न मे निवारणं अस्थि, छवित्ताणं न विज्जइ । अहं तु अग्गिं सेवामि, इइ भिक्खू न चिंतए || ७ || श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 116 / दुइअं परीसहज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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