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[ जैन विद्या और विज्ञान ,
जैसे नरक में होने वाली ऊर्जा को अग्नि कहा गया है, वैसे ही विद्युत् की ऊर्जा को अग्नि कहा जा सकता है। जैसे तेजोलेश्या के तैजस परमाणुओं से उत्पन्न ऊर्जा अचित्त है और जैसे नरक में होने वाले तैजस परमाणुओं की ऊर्जा अचित्त है, वैसे ही विद्युत् की तैजस परमाणुओं से उत्पन्न ऊर्जा अचित्त है।
विद्युत् सचित्त है या अचित्त? यह कोई हमारे आग्रह का विषय नहीं है। विद्युत् का प्रयोग व्यावहारिक है या अव्यावहारिक? इस प्रश्न पर चिन्तन करना हमारे अधिकार का विषय नहीं है। सब अपनी परम्परा को मानने और . इसके अनुसार व्यवहार करने में स्वतंत्र है। हमारा प्रतिपाद्य इतना ही है कि व्यवहार और अव्यवहार की समस्या के आधार पर यथार्थ को नहीं बदला . जा सकता।
। यद्यपि प्रस्तुत लेख में आगम के साक्ष्य उद्धत किए गए हैं, फिर भी संलग्न रूप में आगम, चूर्णि और वृत्ति के कुछ उद्धरण करना अपेक्षित मानता
बादर तेजसकाय मनुष्य क्षेत्र से बाहर नहीं -: .
कह णं भंते ! बादरतेऽकाइयाणं पज्जतगाणं ठाणा पण्णता?
गोयमा! सट्टाणेणं अंतोमणुस्सखेत्ते अड्वाइज्जेसु दीव-समुद्देसु निव्वाधाएणं पण्णरससु कम्मभूमीसु, वाघायं पबुच्च पंचसु महाविदेहेसु, एत्थ णं बादरतेउक्काइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता।
उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, समुग्घारण लोयस्स,असंखेज्जइभागे, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेज्जभागे। (पण्णवण्णा 2/7)
- भंते!पर्याय बादर तैजसकायिक जीवों के स्थान कहाँ प्रज्ञप्त हैं? - गौतम्!स्वस्थान की अपेक्षा बादर तैजसकायिक जीवों का क्षेत्र मनुष्य क्षेत्र से कुछ न्यून है। निर्व्याघात स्थिति में अढ़ाई द्वीप समुद्रों और पन्द्रह कर्म भूमियों मे है। व्याघात स्थिति में वे पांच महाविदेह क्षेत्रों में है। पर्याप्त बादर तैजसकायिक जीवों का यह अन्तः क्षेत्र प्रज्ञप्त है।
उपपात की अपेक्षा बादर तैजसकायिक जीव लोक के असंख्यातवें भाग में, समुद्घात की अपेक्षा से तैजसकायिक जीव लोक के अंसख्यातवें भाग में; स्वस्थान की अपेक्षा बादर तैजसकायिक जीव लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं।