________________
66]
[ जैन विद्या और विज्ञान
बात है। प्रयोग करना या न करना, यह हमारे व्यवहार की बात है। हम कितना प्रयोग करें, कितना न करें? इस सन्दर्भ में अभी नहीं कह सकते । वर्जित है । इसका तात्पर्य यह नहीं है कि विद्युत् को हम सचित्त मानते हैं। पर प्रयोग करने में विवेक से काम लेते हैं कि कितना व्यर्थ का काम होता है, कितना सार्थक काम होता है। दो बाते हो गई - सिद्धान्त और व्यवहार । व्यवहार में कितना काम में लेना, यह अलग बात है । व्यवहार में बहुत सारी बातें वर्जित भी होती है । यह खाना, यह नहीं खाना। ऐसे में सिद्धान्त को प्रयोग में लाएं तो बड़ी विचित्र बात हो जाती है। सिद्धान्ततः विहित है, पर व्यवहार में बहुत सारी वर्जित हैं, क्योंकि स्विच को ऑन और ऑफ करने में बहुत सारी समस्याएँ पैदा हो जाती है। इसलिए अभी व्यवहार में इसे नहीं लेते। किन्तु सिद्धान्ततः यही बात मान्य है कि विद्युत् सचित्त नहीं है।
विषय को आगमिक प्रमाणों से पुष्ट करते हुए लिखा है कि वर्तमान युग बिजली का युग है। इस विषय में दो प्रश्न उपस्थित होते हैं
1. बिजली अग्नि है या नहीं?
2. बिजली सचित्त है या अचित्त ?
इस विषय पर विभज्यवादी शैली से विचार करना आवश्यक है। अग्नि के मुख्य धर्म पांच है 1. ज्वलनशीलता, 2. दाहकता, 3. ताप, 4. प्रकाश, 5. पाक शक्ति । नरक जो अग्नि है
(i) वह ज्वलनशील भी है (सूयगड़ो 1/5/11) (ii) वह दाहक भी है (सूयगड़ो 1 /5 / 12)। (iii) उसमें ताप भी है (सूयगड़ो 1 /5 /13) (iv) प्रकाश भी है (सूयगड़ो 1/5/14) (v) पाक शक्ति भी है (सूयगड़ो 1/5/15) ।
फिर भी वह निर्जीव है, अचित्त है। सजीव अग्निकाय सिर्फ मनुष्य क्षेत्र में होता है। मनुष्य क्षेत्र से बाहर सजीव अग्नि नहीं होती। उसे सूत्रकृतांग सूत्र में अकाष्ठ अग्नि- ईंधन के बिना होने वाली अग्नि बताया गया है। (सूयगड़ो 1/5/38)
मनुष्य लोक में भी अचित्त अग्नि होती है। उसका उदाहरण है तेजोलेश्या । भगवती के एक प्रसंग से यह विषय स्पष्ट होता है
-
-
भंते! क्या अचित्त पुद्गल भी वस्तु को अवभासित करते हैं? उद्योतित करते हैं? तप्त करते हैं? प्रभासित करते हैं?