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मया चिन्तन]
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महाप्रज्ञ का आत्म-तुला का सिद्धान्त (Mahaprajna's Principle of Equivalence of Souls)
- भगवान महावीर ने सत्य का प्रतिपादन करते हुए. कहा कि सब जीवों को अपने समान समझो क्योंकि सबमें आत्म-तत्त्व की समानता है। चैतन्य जीव का सामान्य लक्षण है। उस दृष्टि से सब जीव समान होते हैं। जीवत्व की दृष्टि में हाथी और कुंथु की समानता का प्रतिपादन जैन दर्शन में हुआ है। यद्यपि दोनों के शरीरों में भेद है लेकिन यह भेद चैतन्य की सत्ता में भेद नहीं डालता। दोनों में असंख्य आत्म-प्रदेशों का चैतन्य विद्यमान है। यह सैद्धान्तिक स्थिति है। . आचार्य महाप्रज्ञ ने आचारांग भाष्य में आत्म-तत्त्व का दार्शनिक विवेचन करते हुए लिखा है कि जैन दर्शन के अनुसार आत्माएं अनन्त हैं और उन सबका अस्तित्व स्वतंत्र है। उनका पृथक-पृथक कर्तृत्व है। वे किसी एक ईश्वर की अंशभूत नहीं है और किसी ब्रह्म की प्रपंचभूत भी नहीं है। जैन दर्शन में आत्म-तत्त्व की स्वतंत्रता और समानता को विशेष महत्त्व दिया है। आचार्य महाप्रज्ञ ने आत्म-तत्त्व की स्वतंत्रता के पक्ष में उद्धरण प्रस्तुत किए हैं, वे निम्न है -
(1) जिसे तू हनन योग्य मानता है, वह तू ही है। (2) जिसे तू आज्ञा में रखने योग्य मानता है, वह तू ही है। (3) जिसे तू परिताप देने योग्य मानता है, वह तू ही है। (4) जिसे तू दास बनाने योग्य मानता है, वह तू ही है। (5) जिसे तू मारने योग्य मानता है, वह तू ही है। (6) सुख और दुःख व्यक्ति का अपना अपना होता है। (7) जो एक को जानता है, वह सबको जानता है ____ जो सबको जानता है, वह एक को जानता है। (8) अकेला उत्पन्न होता है, अकेला ही मरता है, और अकेला ही
जन्मान्तर में जाता है। आत्मा की स्वतंत्रता
ये घोष आत्मा की स्वतंत्रता की उद्घोषणा करते हैं। आचार्य महाप्रज्ञ ने आत्माओं की परस्पर में समानता और स्वतंत्रता को आत्म-तुला का स्वरूप
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