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________________ 24] [ जैन विद्या और विज्ञान आत्मा के पुनर्जन्म की, पुद्गल - पदार्थ की गति ओर स्थिति का विश्लेषणात्मक वर्णन किया है । समस्त अस्तित्व को समझने के लिये छः शाश्वत द्रव्यों को माना और उनके द्वितीयक, तृतीयक गुणों को वैज्ञानिक धरातल पर प्रस्तुत किया । (ii) विज्ञान का दर्शन विज्ञान का अपना दर्शन है, चिंतन है । प्रायः प्रयोगों का आधार पूर्व निर्धारित सिद्धान्तों पर होता है। एक समय था जब विज्ञान और दर्शन की धाराएं ध्रुवीय थी लेकिन अब परस्पर में निकट आने लगी हैं। आज भौतिक विज्ञानी जीवन और जगत के उन रहस्यों को जानने में संलग्न हैं जिन्हें पूर्व में केवल दार्शनिक चिन्तन कहा जाता था। वर्तमान में प्रसिद्ध भौतिक शास्त्री हाकिंग सृष्टि के बारे में वैज्ञानिक आधार से यह सिद्ध कर रहे हैं कि यह सृष्टि सीमित है तथा काल की दृष्टि से इसकी न आदि है और न इसका अंत है । ईश्वर को इस सृष्टि निर्माण में कुछ भी करने की जगह नहीं है। भौतिक विज्ञानी हाकिंग के इस कथन से ऐसा लगता है कि कोई जैन दार्शनिक अपने दर्शन की व्याख्या कर रहा हो । पूर्वीय धर्मों में केवल एक जैन धर्म (तथा बौद्ध धर्म) ही इस बात के लिए विख्यात है कि वह ईश्वर को इस सृष्टि का कर्ता और नियंता स्वीकार नहीं करता। जैन दृष्टि से यह सृष्टि अनादि और अनंत है । आज के विज्ञान से इन तथ्यों का साम्य होना जैन दर्शन की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। I - दूसरा महत्त्वपूर्ण तथ्य जैन विद्या और विज्ञान की साम्यता का यह है कि दोनों की तकनीक और तर्क शक्ति समान सी है। जैन विद्या का महत्त्वपूर्ण सत्य है कि प्रत्येक पदार्थ का ज्ञान अनेक दृष्टियों से करना चाहिए और इस विचार को उन्होंने अनेकान्त के सिद्धान्त के रूप में प्रचलित किया । अनेकांत दृष्टि की पुष्टि में जैनों ने स्याद्वाद के सिद्धान्त को प्रसारित किया । स्यादवाद के अनुसार वस्तु के सभी गुण एक साथ नहीं कहे जा सकते लेकिन एक गुण के कथन के समय अन्य गुणों की संभावना बनी रहती है। विज्ञान ने ऐसी संभावना के संबंध में प्रायिकता का सिद्धान्त प्रसिद्ध किया है । अनेकान्त के प्रसार में जैनों ने स्यादवाद को प्रस्तुत करते हुए बताया कि विज्ञान का प्रायिकता का सिद्धान्त उससे साम्य रखता है । पदार्थ विज्ञान में जैनों का कार्य-कारण वाद का सिद्धान्त भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है इस दृष्टि से यह सम्भावना प्रबल होती है कि जैन दर्शन और विज्ञान का दर्शन दोनों की साम्यता का गहराई से अध्ययन किया जा सकता है । -
SR No.002201
Book TitleJain Vidya aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahaveer Raj Gelada
PublisherJain Vishva Bharati Samsthan
Publication Year2005
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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