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प्ररोचना
- बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में जैन दर्शन के लेखन में एक स्पष्ट परिवर्तन दृष्टिगोचर हुआ है। लेखन शैली में अन्य भारतीय दर्शन-वेदान्त, सांख्य, बौद्ध आदि दर्शनों से जो विस्तार में तुलना होती थी, उसकी जगह विज्ञान के परिणामों से तुलना होने लगी है। जैन दार्शनिक पूर्व के लेखन में, वेदान्त के अद्वैतवाद या सांख्य के द्वैतवाद से तुलना करते थे अथवा वेदान्त के नित्य की धारणा तथा बौद्धों के अनित्य की धारणा के साथ जैनों के परिणामी नित्यत्ववाद की स्थापना करते थे, अब यह आवश्यकता प्रायः समाप्त हो चुकी है। जब से वैज्ञानिक आइंस्टीन के सापेक्षवाद की भाषा और अर्थ तथा उसके सिद्धान्त का प्रचार हुआ है तब से जैन दर्शन को मानो उसका सशक्त मित्र मिल गया है। ऐसा स्पष्ट होने लगा है कि आइंस्टीन का सापेक्षवाद का सिद्धान्त और जैन दर्शन का अनेकान्त का सिद्धान्त दोनों के बीच सामंजस्य है। सापेक्षवाद के अतिरिक्त भी आधुनिक विज्ञान के परमाणु संबंधी निष्कर्ष,, मनोविज्ञान, कॉस्मोलॉजी की खोजों ने जैन विद्या के अनेक तथ्यों को प्रकट करने में सुविधा प्रदान की है तथा उन्हें पुष्ट भी किया है। अग्रणी लेखक
.. इस दृष्टि से जैन विद्या की लेखन शैली में विज्ञान का आंशिक उपयोग होने लगा है। इस परिवर्तित लेखन शैली को अपनाने का श्रेय आचार्य महाप्रज्ञ को है और वर्तमान में इस नई परम्परा के वे अग्रणी लेखक के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इस परिवर्तित शैली को अपनाने में उनकी केवल उदारवादी दृष्टि ही नहीं है अपितु सत्य को पाने की गहरी लालसा है। उनका उद्घोष यह है कि सत्य है वह मेरा है, न कि मेरा है वही सत्य है क्योंकि वे अनेकान्तद्रष्टा हैं। आचार्य महाप्रज्ञ की दृष्टि में सापेक्षवाद तथा अनेकान्त का सिद्धान्त इस जगत की घटनाओं को जानने की सशक्त तथा वर्तमान की अन्तिम तकनीक है।
आचार्य महाप्रज्ञ ने विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय करते हुए साहित्य की रचना की है इस कारण उनका साहित्य युग की धारा के साथ प्रचलित और प्रतिष्ठित हुआ है।