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जैन गणित और कर्मवाद ]
वातावरण भी जिम्मेदार है।' इसका अभिप्राय यह है कि वातावरण और पालनपोषण के अनुसार परिवर्तनकारी भी है और वे इनसे प्रभावित होकर ही हमारे व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं। यह भी ज्ञात हुआ है कि मनुष्य की प्रकृति बदलने के लिए बहुत कम जीन बदलने की आवश्यकता होगी। वैज्ञानिकों का कहना है कि जब हम कोई चीज सीखने की कोशिश करते हैं उस समय कुछ विशेष जीनों की खिड़कियाँ खुलती और बंद होती हैं। इसका अर्थ है कि हमारे शरीर के जीन (गुण सूत्रो) पर हमारे विचारों में होने वाली ऊथलपुथल का प्रभाव पड़ता है। इसके अनुसार हमारे जीन्स में परिवर्तन कर हम इच्छित दिशा में तेजी से आगे बढ़ सकते हैं। इस दृष्टि से आचार्य महाप्रज्ञ - का यह कथन कि पुरुषार्थ के द्वारा कर्मों में परिवर्तन किया जा सकता है, जीन्स के परिवर्तन के समान प्रतीत होता है। अब हम अधिक स्वतन्त्र विचारमन्थन कर अपनी-अपनी आध्यात्मिक क्षमता बढ़ा सकेगें और अपना रास्ता चुनने में सहायता मिलेगी ।
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जीन्स और वातावरण
बातावरण का प्रभाव जीन पर कैसे पड़ता है, यह इस उदाहरण से स्पष्ट होता है। सामान्यतया बन्दर सांप से डरते हैं, उन्हें यह डर इसलिए • समा जाता है क्योंकि वे किसी दूसरे प्राणी को साँप से डरते देखते हैं, लेकिन उन्हें फूलों से डरना नहीं सिखाया जा सकता क्योंकि वे किसी अन्य को फूलों
डरते हुए नहीं देखते, उन्हें फूलों से डरना सिखाने के लिए बहुत मशक्कत करनी पड़ेगी । तात्पर्य यह है कि सांप से डरना आनुवंशिक नहीं है। इसी ..कारण से बहुत से बच्चे जो अनजाने में ही सांप से खेलने लगते हैं। बड़े होने पर उनसे डरने लगते हैं। क्योंकि आसपास का वातावरण उन्हें सांप से डरना सिखाता है और डरने की विशेषता उनके जीन्स में पैदा हो जाती है। अतः वेंटर की यह नई खोज महत्त्वपूर्ण है कि जीन आसपास के वातावरण से प्रभावित होते हैं। वे अपरिवर्तनीय नहीं हैं, उन्हें प्रभावित किया जा सकता
है।
शरीर शास्त्रीय दृष्टि से आदमी रसायनों से बनता बिगड़ता है। शरीर शास्त्रीय दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि जितने आवेग, उतने ही रसायन । कर्मशास्त्र में इसे 'रस विपाक' कहा जाता है । अध्यवसाय से कर्म शरीर में एक स्पंदन होता है - स्पंदन से तरंग चलती है वह तैजस शरीर में आती है फिर स्थूल शरीर प्रभावित होता है । अन्तःस्रावी ग्रन्थियों का रसायन सीधा एक के
' साथ मिलता है और व्यक्ति उन रसायनों से प्रभावित होता है ।