________________
224]
[ जैन विद्या और विज्ञान .
जैन गणित में गणना के तीन प्रकार है - » संख्यात » असंख्यात > अनन्त
संख्या की गणना होती है। असंख्यात की गणना नहीं होती लेकिन वह शान्त होता है। अनन्त की न गणना होती है और न उसका अन्त होता है। जैन दर्शन में वर्णित द्रव्यों की चर्चा करते हुए वे कहते हैं कि 'प्रदेश के साथ अनन्त शब्द द्रव्य के अवयवों का निर्धारण करता है। जीव के प्रदेश असंख्य होते हैं। आकाश और अनन्त प्रदेशी पुद्गल स्कन्धों के प्रदेश अनन्त होते हैं। एकतः और उभयतः इन दोनों के साथ अनन्त शब्द का प्रयोग कालविस्तार को सूचित करता है। प्रदेश का अभिप्राय द्रव्य के सूक्ष्मतम काल्पनिक अंश से है।
एकतः अनन्त का अर्थ-आयाम लक्षणात्मक अनन्त (एक श्रेणीक क्षेत्र) और उभयतः अनन्त का अर्थ आयाम और विस्तार लक्षणात्मक अनन्त (प्रतर क्षेत्र) किया है। अन्य व्याख्या में एकतः अनन्त का उदाहरण अतीत या अनागत काल और उभयतः अनन्त का उदाहरण-सर्वकाल दिया है। आचार्य महाप्रज्ञ ने इनमें कोई विरोध नहीं कहा है। इनकी व्याख्या देश और काल - दोनों दृष्टियों से की जा सकती है।
देश विस्तार और सर्व विस्तार के अनन्त शब्द का प्रयोग दिग् और क्षेत्र के विस्तार को सूचित करता है। इस प्रकार विभिन्न संदर्भो के साथ अनन्त शब्द विभिन्न अर्थों की सूचना देता है। यह अनन्त शब्द की निक्षेप पद्धति का एक उदाहरण है।
जैन गणित में हम विशेषता पाएंगे कि वहाँ संख्यात और असंख्यात को साथ-साथ ही रखा है। असंख्यात को संख्यात का ही भाग माना है तथा वह गणना का भाग नहीं है। काल की सारिणी जो नीचे दी गई है, उसे देखें तो हम पाएंगे कि संख्यात के बाद असंख्यात और फिर संख्या का पुनः प्रयोग हुआ है। असंख्य समय की एक आवलिका के बाद, संख्येय आवलिका का एक निःश्वास बताया है। एक ही तालिका में असंख्यात और संख्यात का होना यह सिद्ध करता है कि असंख्यात, संख्यात का ही भाग है।
भगवती सूत्र में संख्येय काल का निरूपण करते हुए काल सारिणी दी