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________________ जैन गणित भारत में गणित के अध्ययन का आरम्भ ईसा पूर्व हजार वर्ष माना गया है। वैदिक काल में यज्ञों के लिए हवन कुण्डों का निर्माण होता था। यज्ञ क्षेत्र में पवित्र आग की सुरक्षा के लिए हवन कुण्डों को विशेष आकार दिया जाता था। कुण्डों के आकार त्रिकोण, चतुष्कोण, विस्तीर्ण, अधिवृत, परिमण्डल, वृत आदि अन्य ज्यामिती खण्डों में हुआ करते थे। इससे ज्ञात होता है कि वैदिक काल में ज्यामिती विज्ञान अपनी समृद्ध अवस्था में था। जैन गणित - जैन दर्शन में लोक के छह द्रव्यों की मीमांसा में गणित का उपयोग हुआ है। जैन गणित का अभ्युदय ईसा पूर्व की छठी शताब्दी तथा इससे भी पूर्व का रहा है, जब भगवान पार्श्व और महावीर की परम्परा का ज्ञान 'विकसित हो रहा था। जैन गणित के दो प्रमुख मौलिक आयाम हैं - 1 जैनों ने इस लोक की रचना, उसके मध्य बिन्दु, (रुचक-प्रदेश) वक्राकार दिशाएं, कृष्ण-राजि आदि अन्य शाश्वत संस्थानों (स्वर्ग, नरक आदि) के आकार को समझने में ज्यामिती को विकसित किया है। 2. कर्मों की प्रकृतियां, जीव राशियों की गणना, जीवों के आयुष्य आदि को स्पष्टता एवं प्रामाणिकता से व्यक्त करने की दृष्टि से संख्यात्, असंख्यात् और अनन्त के गणितीय सिद्धान्तों का उल्लेख, विकास एवं अनुप्रयोग प्रचुरता से हुआ है। स्थानांग और उत्तराध्ययन सूत्र में संस्थान (आकार) परिणाम पांच प्रकार के बताए हैं - » परिमण्डल : चूड़ी की तरह गोल > वृत : गेंद की तरह वर्तुलाकार त्रिकोण चतुष्कोण आयत AA AA
SR No.002201
Book TitleJain Vidya aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahaveer Raj Gelada
PublisherJain Vishva Bharati Samsthan
Publication Year2005
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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